विषय सूची
श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
सप्तमं शतकम्
अपने सुगौरवर्ण अंगों की कांति से दशों दिशाओं को आच्छादन करने वाली हैं, चित-जड़ आदि द्वैत वस्तु को अच्छी प्रकार रूपसागर में निमग्न करके अति मधुर छवि प्रकाश करने वाली हैं।।93।।
वह महा प्रेमरस-समुद्र में प्रकाशित एक अद्भुत शोभाशालिनी है एवं श्रीकृष्ण के कोटि प्राण निर्मंछनकारी एक मुख्यरस की शोभा धारण करने वाली हैं।।94।।
वह स्वयं प्रकाश एवं नित्य मिलनात्मक सुन्दर प्रेम की ही एक रसछवि हैं एवं आश्चर्य नवकैशोर में व्यंञ्जित दिव्यतमाकृति युक्ता हैं।।95।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज