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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
व्रजविभूति श्रीश्यामदास
‘श्रीश्यामलाल हकीम’
परिवार
सन् 1947 में जब भारत का विभाजन हुआ तो आपका परिवार श्री धाम वृन्दावन आ गया। पिता की वयसाधिक्य के कारण परिवार के समस्त दायित्व आप पर ही थे। कठिन परिश्रम से समस्त परिवार का पालन करते हुए आप वृन्दावन में रहने लगे। और ‘चल मन वृन्दावन चल रहिए’ की आपकी साधना यहाँ पूर्ण हुई। आप सपरिवार वृन्दावन आकर बस गये और लोई बाजार में दुकान लेकर चिकित्सा कार्य प्रारम्भ किया। प्रारम्भ में सामान्य रोगी तो आता ही नहीं था, प्रायः ऐसे रोगी आते थे, जिन्हें सब ओर से निराश होकर जवाब मिल जाता था। ईश्वर में विश्वास और निष्ठा से यूनानी पद्धति से ऐसे मरणासन्न रोगियों की चिकित्सा कर अनेक रोगियों को स्वस्थ कर नगर एवं आसपास के क्षेत्र में ‘खानदानी’ के नाम से सुविख्यात चिकित्सक के रूप में ख्याति एवं सम्मान अर्जित किया। प्रारम्भ में ब्राह्मण, वैष्णव एवं हरिजन को निःशुल्क दवा दिया करते थे। प्रातः सायं 100 से 150 रोगी प्रतिदिन की हाजिरी रहती थी। दोपहर में खाली समय मिलने पर ग्रन्थों का अध्ययन, आस्वादन एवं सम्पादन में अपना समय सार्थक करते थे। बंगला साहित्य को पढ़कर आप सदैव चमत्कृत होते रहे। अध्ययन एवं साहित्य में रुचि एवं सत्संग-कथा-प्रवचन में लगातार लगे रहने एवं सन्तों के संग में सदैव रहने से विशेषतः श्री गुरुदेव की अन्तिम अवस्था में शारीरिक सेवा करने के कारण इनमें दिवय शक्ति पुंजीभूत होती रही। वृन्दावन में इनके युवा सुपुत्र एवं युवा पत्नी की असामयिक गोलोक-प्राप्ति एवं अन्य भीषण विपत्तियों के कारण इनके परिवारी जनों ने इन्हें वृन्दावन छोड़कर अन्य नगर में बसने की सलाह दी। लेकिन वृन्दावन में अगाध निष्ठा के कारण वृन्दावन छोड़कर जाना तो दूर अपने परिवारी-रिश्तेदारों को प्रारब्ध एवं इन सब घटनाओं की दार्शनिक पृष्ठ भूमि समझा कर अपनी साधना सेवा में संलग्न रहे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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