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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
सप्तमं शतकम्
वह नित्य-काम के सिवाय अन्य रसों के लव लेश स्पर्श से भी रहित है, एवं महाशुद्ध कामबीज-राजात्मक अत्युन्मद रसमय है।।65।।
उसके बीच फिर श्रीमद्वृन्दावनीय वन घन-भाव से प्रतिभात हो रहा है, वह पूर्ण माधुर्य का साम्राज्य है एवं पूर्ण चमत्कादायी है।।66।।
वह (श्रीवृन्दावन), पूर्णातिपूर्ण मधुर प्रकाशमय है, पूर्ण रसयुक्त एवं सर्व सौभाग्य पूर्ण वृक्ष-लता, पक्षी-पशु आदिकों से शोभित है।।67।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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