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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
सप्तमं शतकम्
घोरतम दुःख से ही जिसका आदि मध्य एवं अन्त परिवेष्टित है जो आति शीघ्र ही विनाश को प्राप्त होगा, जिसके लिए विष्ठाभोगी शूकर अतिशय आशा लगाये हुए हैं, जिसके द्वारों से मलमूत्रादि क्लेश निरन्तर निकल रहे हैं, हाय! यह सब बार-बार देखते हुए भी मैं कुविषयों को भोग करने के लिए महास्पृहावान् हो रहा हूँ हे वृन्दावन! मेरी रक्षा कीजिए।।42।।
श्रीवृन्दावन के प्रेम में यदि मुझसा व्यक्ति सर्व धर्म त्याग करे दुर्निवार इन्द्रिय समूह भी यदि श्रीभगवान् के प्रति अपराध समूह करें, एवं वृन्दावन-वास में यदि विघ्न हो जा, भले सब कुछ हो जाये किन्तु श्रीकृष्ण प्रेम की चरम सीमा को प्राप्त जो यह श्रीवृन्दावन है, क्या जहाँ तहाँ मेरी रक्षा नहीं करेगा?।।43।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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