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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
सप्तमं शतकम्
भगवान् के नाममात्र के प्रताप से ही राग-द्वेषादि अनर्थों को त्याग कर, देहादि समस्त द्वैत-विषय भूल जा, फिर तुरीय तेज की स्फूर्ति कर, फिर उसे भूलकर उस तुरीय तेज के मध्यस्थ रहस्यस्थल में अनिर्वचनीय मधुर ज्योति का सन्दर्शन कर एवं उसमें अद्भुत श्रीवृन्दावनधाम का ध्यान करके गौरनील युगल नागर (श्रीराधा-कृष्ण) के साक्षात् दर्शन कर।।40।।
वीभत्य विषयों में अबाध गति से इस देह इन्द्रियों सहित मैं दोड़ रहा हूँ, कहीं भी सुख की गन्धमात्र प्राप्त नहीं होती, अतिशय अन्धा होकर भी मैं अति उन्मत हो रहा हूँ आश्चर्य यह है कि गुरु, शास्त्र, मित्रों के वचनों को सुनने में मेरे दोनों कान बधिर हो रहे हैं, हाय! मन्दमति मुझको कब श्रीवृन्दावन प्राप्त होगा।।41।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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