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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
सप्तमं शतकम्
कालिन्दी पुलिन के नवकुंजों में सहजकिशोर अवस्थायुक्त मदनोन्मत्त कोई एक सुवर्णवर्ण ज्योति (श्रीराधाजी) किसी एक अतुलनीय इन्द्रमणि तथा मेघवर्ण किशोर (श्रीकृष्ण) के सहित अतिमधुरापरिपाटी से नित्य क्रीड़ा कर रही है, मैं कब उनके हृदय मन्दिर में भजन करुंगा।।24।।
अद्वैत ब्रह्ममय ज्योति में महानन्द की सुन्दर जयोति जययुक्त हो रही है, उसके अन्दर और फिर महास्वादनीय मुख रत्यात्मक मयधुर एक महाज्योति शोभित हो रही है। उसकी की घनमूर्त्ति श्रीवृन्दावन की अधिष्ठात्री नित्या क्रीड़ाकिशोरी श्रीराधा-श्रीश्यामसुन्दर के साथ विराजमान हैं, उनके ही चरण-कमलों की मधुरतर ज्योति का स्मरण कर।।25।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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