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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
सप्तमं शतकम्
हे वृन्दावन! मुझे धर्माधर्म का विचार नहीं है, सदा दुर्जनो के संग में आसक्त रहता हूँ, काम, क्रोध, मदादि प्रतिक्षण बलपूर्वक मुझे निष्पेषण कर रहे हैं, सर्दी, गर्मी मान-अपमानादि द्वन्द्व जरा भी मैं सहन नहीं कर सकता हूँ। मुझ पर यदि कृपा कर अपनी उदारता से क्षमा-शील जननी की भाँति मेरी रक्षा करो तो मुझे आनन्द प्रापत होगा।।22।।
श्रीराधा-कृष्ण को नित्य उन्मत्त करने वाले एवं मदन-विनोद प्रदान करने वाले कुंजों में दिन रात परम भावपूर्वक अतिशय पुलकित होकर एवं अश्रुधारा प्रवाहित करते हुए श्रीवृन्दावन के प्रति स्थल पर विचरण करूँ अहो? ऐसा भाग्य मेरा कब उदय होगा? ।।23।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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