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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पंचमं शतकम्
संगीत-उत्सव में निमग्न कोकिलाओं जो मुखरित हो रहा है, नृत्य परायण मोरवृन्दों से जो उल्लसित हैं, एवं सुन्दर मधुकरों की दिव्य मधुरध्वनि से जो गूँज रहा है, जो लताओं के मण्डपों से शोभित है तथा श्रीराधाकृष्ण की सेवा परायण जो रसमय सखीवृन्द हैं उनके वांछित प्रयोजन की सम्यक् पूर्ति करने वाली वृक्षलता वृन्दों से सुशोभित सुन्दर श्रीवृन्दावन है- वह मेरे हृदय में स्फुरित हो।।19।।
हे सखे! परावार रहित स्वयंप्रकाश विमल चिज्ज्योतिर्मय अमृत-समुद्र के द्वीप में अतुलनीय कांतियुक्त श्रीवृन्दावन को स्मरण कर। वह श्रीवृन्दावन अनन्त कम्ब-वाटियों से परिवेष्ठित है एवं अनन्त वृक्षलता-निकुंजों से सुशोभित है तथा श्रीरसिक युगलकिशोर का सर्वस्व निवास स्थान स्वरूप है।।।20।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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