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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
कोई एक (अनिर्वचनीय) श्यामकिशोरचन्द्र अनेक प्रकार की कन्दर्प लीला की कला चातुरी से अतिशय सौभाग्यवान् होते हुए भी अपार चमत्कारिता धारण कर श्रीराधा की महानुराग विभूति के द्वारा लावण्य एवं माधुर्य प्रवाहसहित निरन्तर दुर्दमनीय काम के वशीभूत होकर-उसी श्रीराधा के साथ क्रीड़ा करता है।।17।।[1]
नव नव अनंगरंग में आतुर गौरश्याम दिव्यमोहन तनुधारी नित्य किशोर अवस्थायुक्त वे अद्भुत श्रीयुगलविग्रह श्रीवृन्दावन मण्डल के अति निभृत कुंजों में बार बार प्रेमोत्कण्ठा से पुलकावलीवश कदम्बाकृति धारण करते हैं- उनका मैं स्मरण करता हूँ।।18।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 30 श्लोकों में कुलक समाप्त हुआ
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