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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
तृतीय शतकम्
त्रिगुण (सत-राज-तम) रहित पूर्ण-उज्ज्वल विमल महाकामराज स्वरूप दिव्य ज्योति के स्वानन्द-सागर से प्रगट हए मधुरतर द्वीप के समान जो श्रीवृन्दावन है- उसके कुंजों में श्रीराधाकृष्ण के तीव्र प्रेमरस में पूर्ण होकर पुलकित शरीर से अपने प्रियतम नाथ श्रीयुगलकिशोर की सेवा में गोप-बालाएँ संलग्न हैं।।39।।
जो मेखला, नूपुर, बाजूबन्द, कंकण एवं अनेक रत्न जटित अँगूठी आदि भूषणों से सुशोभित हैं, जिनके सुन्दर नासाग्र भाग में मणि एवं सुवर्णयुक्त मुक्ता डोलायमान हैं, परिधान में विचित्र साड़ी कटिदेश आति सुन्दर एवं जिनकी कंचुकी पर चमकते हुए हारों की छटा है, वेणियों गुच्छे आन्दोलित हो रहे हैं- ऐसी स्वर्णवर्ण विशिष्ट श्रीराधिका की दासियों को स्मरण कर।।40।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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