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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
तृतीय शतकम्
अहो! उच्च उच्चरस-तरंगमय नित्यनवीन उन्माद करने वाली काम-क्रीड़ा में चंचल उज्ज्वल मेघ के सदृश अंगों से जो त्रिभंग हो रहे हैं, मोरपुच्छ एवं मणिमय कुण्डल धारी ब्रज की अबलाओं का नीवि-बन्धन शिथिल करने वाले मुख पर वंशीधारी श्रीहरि हृदय में स्फुरित हों।।41।।
जो श्रीराधा कृष्ण की कामतृष्णा के महासमुद्र की निरन्तर ही असीम वृद्धि करता है एवं जो आनन्दघनराशि के आपार सर्वोत्तम सौन्दर्य तथा सौभाग्य से युक्त है- वही श्रीवृन्दावन ही हमारा प्रीतिस्थल है।।42।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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