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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वितीयं शतकम्
श्रीराधा कृष्ण रूप अनेक भावों से विलास-परायण होकर विराजमान हैं। एक अवस्था यह है- सखी गणों से भी अलक्षित भाव से कान्ता एवं कान्त एक दूसरे को गाढ़-आलिंगन पूर्वक नित्य तादात्म्य-भाव प्राप्त हैं। अपरावस्था है- सखी गणों के द्वारा दूर से दृष्य मान होकर लता-निर्मित नवीन मण्डल में मिलन और एक अवस्था (निकुञ्ज में) है- दोनों का परिहास युक्त मंगल वाक्यों में निरत होना, अन्यावस्था है- वृन्दावन में नित्य विहारशील। और अवस्था है- (कुञ्जों से गोष्ठ में एवं गोष्ठ से कुञ्जों में गमना गमन करते हुए) गोकुल में मिलन, और प्रकाश में (अवस्था में) वे (माथुर) विरह दशा प्राप्त हैं। (एवं तदनन्तर समृद्धि मान् सम्भोग युक्त मिलन है- श्री वृहद् भागवत मृत द्रष्टव्य)।।35।।
हे सखे! श्रीवृन्दावन वासी उस अनिर्वचनीय श्याम-रस-समुद्र का भजन कर-जिस श्याम रस-समुद्र में नित्य ही काम-रंग-विलास लीलामय उत्तुंग तरंगें प्रकाशित हो रही हैं, उसमें श्री राधा का मन रूप दिव्य मत्स्य निरन्तर वास करता है। वह श्री राधा-मुख-चन्द्र के द्वारा उच्छलित होता है, श्री राधा के काम रूप सुन्दर पर्वत के द्वज्ञरा वह मथित होता है एवं वह सखियों के नेत्रों को अमृत दान करने वाला है।।36।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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