विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीकृपायोग का आश्रय और चंद्रोदयब्रह्माजी! तुम क्या बोलते हो? तुम क्या व्रजवासियों की इंद्रियों में बैठकर श्रीकृष्ण का रसास्वादन कर सकते हो? बोले- अरे भाई, कर तो नहीं सकते, औरों को तो नहीं करते हैं, और जगह तो हम लोग बिलकुल शुक्ल कर्म करते हैं, अनुग्रह ही करते हैं, पर यह कृष्ण का प्रसंग आता है, तब उनके साथ काले काम भी करने लगते हैं, ब्लैकमेल भी कर लेते हैं। जादू तो वह जो सिर पर चढ़कर बोले- इनके साथ तो ब्लैक भी चलती है क्योंकि इतने सुन्दर हैं, इतने मधुर हैं। कृष्ण का सौरभ जब मिलता है, तब अश्विनीकुमार को यह भूलजाता है कि हम इमानदारी से परे होकर यह गन्ध सूँघ रहे हैं। सूर्य को भी भूल जाता है। बोले- ब्रह्म, तुम अब भी भूल कर रहे हो। कहा- क्या भूल है अब? अब यह भूल है कि ये व्रजवासी तो सच्चिदानन्दघन अप्राकृत हैं, इनके देह प्राकृत नहीं है, इनकी इंद्रियाँ प्राकृत नहीं है। अरे भाई। ‘तस पूजा चाहिय जस देवता’ कृष्ण से मिलने के लिए स्वयं को भी जैसे- वे देहातीत हैं वैसे हमको बी धर्मातीत होना पड़ेगा। जैसे वे प्रकृति से परे हैं वे हमको भी प्रकृति से परे होना पड़ेगा। तो ये व्रजवासी तो अप्राकृत हैं, इनकी इन्द्रियाँ अप्राकृत हैं; और अप्राकृत इन्द्रियों में देवता की जरूरत नहीं होती। प्राकृत इन्द्रियों में ही जहाँ तमस् बना हुआ शरीर है और रजस् से होने वाली क्रिया है और सत्त्व से बनी हुई इंद्रियाँ हैं वहाँ अनुग्रह करने के लिए सूर्य-चंद्रादि देवताओं की अपेक्षा होती है। और ये तो सच्चिदानन्दघन, इसमें तुम कहाँ से आये? तो ब्रह्माजी बोले- भाई तुम चुप रहो, चुप रहो, कोई सुन न ले भला। मिथ्यापवादवचसाऽपि अभिमानसिद्धिः । अरे, यद्यपि हमारी प्राकृत इन्द्रियों के साथ और प्राकृत देवताओं के साथ श्रीकृष्ण के रस-रहस्य का कोई संबंध नहीं होता, लेकिन जब व्रजवासी लोग इनको अपनी इन्द्रियों से पीते हैं- पिबन्त्य इव चक्षर्भ्यां लिहन्त्य इव जिह्वा- आँखों से पीते हैं, जीभ से चाटते हैं,- रम्भन्त्य इव बाहुभ्यां- दोनों हाथ से पकड़कर हृदय से लगाते हैं, तो दुनिया को तो ऐसे ही मालूम पड़ता है कि हाथ हृदय को लगाया और आँख से देखा और जीभ से चाट लिया। तो जब सब लोगों को मालूम पड़ता है कि इन्द्रिय-ग्राह्य हो गये हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
प्रवचन संख्या | विषय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज