रासपंचाध्यायी -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 465

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रासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती

रासलीला का अन्तरंग-1

अब देखो- श्रीकृष्ण कितना प्रेम करते हैं! इस प्रसंग में वे कहते हैं-

न पारेयेऽहं निरवद्यसंयुजां स्वसाधुकृत्य विबुधायुषापि वः ।
या माभजन् दुर्जरगेहश्रृंखलाः सवृश्च्य तद्वः प्रतियातु साधुना ।।

श्रीकृष्ण का जो सौन्दर्य है, उनकी जो श्री है, वह पराकाष्ठा को प्राप्त हो गयी! ये कपड़े की सुन्दरता से सुन्दरता नहीं होती, चमड़ी की सुन्दरता का नाम सुन्दरता नहीं है। तुलसीदासजी ने इस पर व्यंग्य किया है- विषरस भरा कनक घट जैसे। हृदय के सौन्दर्य का नाम सौन्दर्य होता है। गोपी ने कहा- तुम प्रेम करने पर भी प्रेम नहीं करते, कृतघ्न हो! गोपियों के मुँह से यह शब्द निकला कृतघ्न हो। श्रीकृष्ण ने कहा- कि मैं जानता हूँ कि तुमलोगों ने मेरे लिए कितना त्याग-वैराग्य किया- मदर्थोज्झित लोकवेदस्वानां- मेरे लिए तुमने लोक छोड़ा, मेरे लिए वेद छोड़ा, मेरे लिए शरीर छोड़ा, मैं तुम्हारे प्रेम को पहचानता हूँ। गोपियो! इतना प्रेम होने पर भी जो तुम्हारे अन्दर गर्व है उस दोष को धोने के लिए मैंने यह साबुन का काम किया है; तुम्हारे हृदय में और चिकनाई, और स्नेह, और प्रेम लाने के लिए मैं अन्तर्धान हुआ था। मैं तो कभी तुमसे उऋण नहीं हो सकता। न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां- ब्रह्म की आयु लेकर भी हम तुम्हारी सेवा करें तो हम तुमसे उऋण नहीं हो सकते! यह श्रीकृष्ण के प्रेम का वर्णन है। श्रीकृष्ण प्रेम करते हैं। यह हुई प्रेम- सौन्दर्य की बात। श्रीकृष्ण का सौन्दर्य जो है वह हृदय का सौन्दर्य है। प्रेमी के प्रति कृतज्ञता का सौन्दर्य है।

अब उसके बाद रासपञ्चाध्यायी के अंतिम अध्याय में धर्म का वर्णन है; यह भगवद् धर्म है। यह धर्म के प्राकट्य से धर्मी का प्राकट्य है-

पादन्यासैः भुजविधुतिभिः सस्मितैर्भ्रूविलासैः
भज्यन्मध्यैः चलकुचपटैः कुण्डलैर्गण्डलोलैः ।

यह भगवद् धर्म का प्रकाश है। जैसे सूर्य की प्रभा जब धरती में छा जाती है तो यह जहाँ से आती है उस सूर्य का पता लगता है- सूर्य धर्मी है और प्रभा उसका धर्म है; इसी प्रकार जब भगवान् रास-विलास करते हैं; रस का विस्तार करते हैं तब ये रसेश्वर हैं, रसिकतत्त्वचूड़ामणि हैं, रसिकेन्द्रचक्रवर्ती हैं, धर्मी का यह रस-स्वरूप प्रकट होता है! और अन्त में वैराग्य देखो- हे भगवान्!

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

रासपंचाध्यायी -अखण्डानन्द सरस्वती
प्रवचन संख्या विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. उपक्रम 1
2. रास की भूमिका एवं रास का संकल्प 12
3. रास के हेतु, स्वरूप और काल 28
4. रास के संकल्प में गोपी-प्रेम की हेतुता 40
5. रास की दिव्यता का ध्यान 51
6. योगमाया का आश्रय लेने का अर्थ 63
7. योगमायामुपाश्रित:-भगवान की प्रेम-परवशता 75
8. कृपायोग का आश्रय और चंद्रोदय 85
9. रास-रात्रि में पूर्ण चंद्र का दर्शन 96
10. रास में चंद्रमा का योगदान 106
11. भगवान ने वंशी बजायी 116
12. गोपियों ने वंशी-ध्वनि सुनी 127
13. श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का अभिसार 141
14. जो जैसिह तैसिह उठ धायीं-1 152
15. जो जैसिह तैसेहि उठ धायीं-2 163
16. जो जैसेहि तैसेहि उठि धायीं-3 175
17. जार-बुद्धि से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है 187
18. विकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है 198
19. गोपी दौड़कर गयीं कृष्ण के पास और कृष्ण ने कहा कि लौट-जाओ 209
20. श्रीकृष्ण का अमिय-गरल-वर्षण 214
21. गोपी के प्रेम की परीक्षा-धर्म का प्रलोभन 225
22. ‘लौट-जाओ’ सुनकर गोपियों की दशा का वर्णन 238
23-24. प्रेम में सूखी जा रहीं गोपियाँ आखिर बोलीं 248
(प्रणय-गीत प्रारम्भ)
25. गोपियों का समर्पण-पक्ष 261
26. श्रीकृष्ण में रति ही बुद्धिमानी है 276
27. गोपियों की न लौट पा सकने की बेबसी और मर जाने के परिणाम का उद्घाटन 286
28. गोपियों का श्रीकृष्ण को पूर्व रमण की याद दिलाना 297
29-31. गोपियों में दास्य का उदय 307
32. गोपियों में दास्य का हेतु-1 338
33. गोपियों में दास्य का हेतु-2 353
34. गोपियों में दास्य का हेतु-3 366
35-36. गोपियों की चाहत 376
(प्रणय-गीत समाप्त)
37-39. प्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रम 393
40. रास में श्रीकृष्ण की शोभा 429
41. रास-स्थली की शोभा 441
42. रासलीला का अन्तरंग-1 453
43. रासलीला का अन्तरंग-2 467
44. रासलीला का अन्तरंग-3 480
45. रासलीला का अन्तरंग-4 494
46. अंतिम पृष्ठ 500

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