विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीरासलीला का अन्तरंग-1अब देखो- श्रीकृष्ण कितना प्रेम करते हैं! इस प्रसंग में वे कहते हैं-
श्रीकृष्ण का जो सौन्दर्य है, उनकी जो श्री है, वह पराकाष्ठा को प्राप्त हो गयी! ये कपड़े की सुन्दरता से सुन्दरता नहीं होती, चमड़ी की सुन्दरता का नाम सुन्दरता नहीं है। तुलसीदासजी ने इस पर व्यंग्य किया है- विषरस भरा कनक घट जैसे। हृदय के सौन्दर्य का नाम सौन्दर्य होता है। गोपी ने कहा- तुम प्रेम करने पर भी प्रेम नहीं करते, कृतघ्न हो! गोपियों के मुँह से यह शब्द निकला कृतघ्न हो। श्रीकृष्ण ने कहा- कि मैं जानता हूँ कि तुमलोगों ने मेरे लिए कितना त्याग-वैराग्य किया- मदर्थोज्झित लोकवेदस्वानां- मेरे लिए तुमने लोक छोड़ा, मेरे लिए वेद छोड़ा, मेरे लिए शरीर छोड़ा, मैं तुम्हारे प्रेम को पहचानता हूँ। गोपियो! इतना प्रेम होने पर भी जो तुम्हारे अन्दर गर्व है उस दोष को धोने के लिए मैंने यह साबुन का काम किया है; तुम्हारे हृदय में और चिकनाई, और स्नेह, और प्रेम लाने के लिए मैं अन्तर्धान हुआ था। मैं तो कभी तुमसे उऋण नहीं हो सकता। न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां- ब्रह्म की आयु लेकर भी हम तुम्हारी सेवा करें तो हम तुमसे उऋण नहीं हो सकते! यह श्रीकृष्ण के प्रेम का वर्णन है। श्रीकृष्ण प्रेम करते हैं। यह हुई प्रेम- सौन्दर्य की बात। श्रीकृष्ण का सौन्दर्य जो है वह हृदय का सौन्दर्य है। प्रेमी के प्रति कृतज्ञता का सौन्दर्य है। अब उसके बाद रासपञ्चाध्यायी के अंतिम अध्याय में धर्म का वर्णन है; यह भगवद् धर्म है। यह धर्म के प्राकट्य से धर्मी का प्राकट्य है-
यह भगवद् धर्म का प्रकाश है। जैसे सूर्य की प्रभा जब धरती में छा जाती है तो यह जहाँ से आती है उस सूर्य का पता लगता है- सूर्य धर्मी है और प्रभा उसका धर्म है; इसी प्रकार जब भगवान् रास-विलास करते हैं; रस का विस्तार करते हैं तब ये रसेश्वर हैं, रसिकतत्त्वचूड़ामणि हैं, रसिकेन्द्रचक्रवर्ती हैं, धर्मी का यह रस-स्वरूप प्रकट होता है! और अन्त में वैराग्य देखो- हे भगवान्! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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