विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रमअंतरंग जो हृदय है वह स्नेह से भर जाता है। बोले- एक विचित्रता इसमें यह है कि वह अधूरा होता है तब टेढ़ा होता है और पूरा होता है तो गोल हो जाता है और यह प्रेम-चंद्र, महाराज! पूरा हे पर भी टेढ़ा ही रहता है- पूर्णत्वेऽपि वक्रमाणं उद्वहन्तम्- पूर्ण प्रेम होने पर भी इसमें मान की वक्रिमा, मानका टेढ़ापन बना रहता है। वक्रमाणं पूर्णत्वेऽपि उद्वहन्तं निजरुचिघट्या साध्वसं ध्वंसयन्तं- इसमें इतनी रुचि है कि आग कभी बुझती ही नहीं है, भूख कभी मिटती नहीं और प्रेमी पुरुष निर्भय हो जाता है, प्रेम सारे भय को मिटा देता है- तन्वानं सम्प्रदोषे-सांयकाल-प्रदोषकाल में चंद्रमा का उदय होता है; और यह प्रेम चंद्र कब बढ़ता है? कि जब अपने प्रियतम में कोई दोष दिखता है। क्योंकि प्रेमी सोचता है कि बस-बस, अब हमारी जरूरत है, अब हम इनको एक क्षण के लिए नहीं छोड़ेगे। दोष देखकर जो प्रेम घटता है, वह फायदा उठाने के लिए होता है, भला! देखा कि बड़े दयालु हैं तो जाकर लल्लो-चप्पो करने लगे, तारीफ करने लगे, और देखा कि कृपण हैं तो छोड़ दिया। उनकी स्वार्थ सिद्धि में कोई बाधा पड़े तो यह है कि जिसके हृदय में दोष का लेश होता है उसको ही दोष दिखता है। सच्चे प्रेम में दोष-दृष्टि होती ही नहीं है। एक दोष बताओ तो प्रेमी उसकी हजार सफाई दे देंगे। कहेंगे- तुम उनकी परिस्थिति तो देखो, उनकी दया को तो देखो, उनको कितने संकट में पड़कर यह काम करना पड़ा होगा, यह तो देखो! गलती करे दूसरा, सफाई दे दूसरा- क्योंकि प्रेम है। प्रेमी को दोष नहीं मालूम पड़ता। तन्वानं सम्प्रदोषे। और नवनव पुरुचिता सम्पदम्- नवीन-नवीन रोचकता उसमें आती जाती है। यह भाव चंद्रमा, यह प्रेम-चंद्रमा अद्भुत है। ऐसा नशा है इस प्रेम के चंद्रमा का कि इस गुणदोषमय सृष्टि का दीखना बन्द हो जाता है। बाहर से गुण-दोष भाग जाते हैं और भीतर से राग-द्वेष भाग जाते हैं। सुख हो तो प्रीतम से, दुःख हो तो प्रीतम से, गाली दे तो प्रीतम, तारीफ करे तो प्रीतम, मारे तो प्रियतम, जिलावे तो प्रियतम- अद्भुतं भावचंद्रम्- यह भाव का जो चंद्रमा है यह प्रेम का जो चंद्रमा है, अद्भुत हैं! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
प्रवचन संख्या | विषय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज