विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रमऊर्ध्वं सत्त्वेन- अपनी शक्ति से भी अधिक और पूरा का-पूरा दे देना, अपने पास कुछ बचाकर नहीं रखना, यह उदार का लक्षण है। भगवान उदार हैं, यह बात यहाँ नहीं कही जा रही; उनकी चेष्टा उदार है यह बात कही जा रही है। भगवान की लीला उदार है, भगवान का नाम उदार है, गुण उदार है, चेष्टा उदार है। तो कर्म में और चेष्टा में फर्क होता है, भला। क्रिया जो होती है वह अन्य द्रष्टा के संयोग से कर्म होती है, अपनी स्वीकृति से भी होती है और अन्य से भी होती है। परंतु लीला जो होती है वह केवल आनन्द के लिए होती है पर उसमें और की अपेक्षा होती है। और चेष्टा होती है जैसे अपनी आँख हिलाना, आँख की ओर हिलाना या ऐसे हाथ से नृत्य की मुद्रा करना, चिबुक हिलाना, शिर हिलाना; नृत्य में, अपने नेत्र की चेष्टा-ललितनेत्र, छलितनेत्र, वलितनेत्र, पलितनेत्र, दुष्टनेत्र, आर्तनेत्र, एक सौ छब्बीस प्रकार से नेत्रों की चेष्टाओं का वर्णन आता है। नाट्यशास्त्र का विषय है कि कैसे आँख बनावें तो उसमें- से क्या निकले? आँख ही आँख से माँग लेना, आँख से ही दुःख प्रकट करना, आँख से हँस देना, आँख से मोल कर लेना, आँख से अभिमान प्रकट कर देना, आँख से डाँट देना, यह सब आँख ही आँख से होता है। तो चेष्टा में न तो की द्रष्टा है और न तो कोई क्रिया है, सिर्फ अपने शरीर में ही चेष्टा होती है। तो यहाँ उदारता क्या है? जैसे- एक नौकर मालिक का दान कर दे तो आप क्या सोचेंगे? और मालिक सचमुच नौकर के दान करने पर दिया हुआ हो जाय तो क्या बोलेंगे। मालिक ने कहा- हमारे नौकर ने हमको दान कर दिया तो सचमुच हमारा दान हो गया। भगवान का नाम उदार है। नाम क्यों उदार है? कि यह है तो भगवान का नौकर और दान मालिक का, भगवान का करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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