विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों की चाहतश्रीवल्लभाचार्यजी कहते हैं कि जैसे सोने की दो मूर्ति बनायी जायँ- अहम् और इदम्- तो दोनों जैसे सोना है, उसी प्रकार भगवत्-संकल्प में भगवत्-संकल्पानुसार जो प्रपञ्च दिख रहा है वह भगवत्-स्वरूप से पृथक् नहीं है। श्रीशंकराचार्य की तो बात ही छोड़ देते हैं, क्योंकि उनके मत में तो....सर्वं खलु इदं ब्रह्म- मूल सिद्धांत यही है कि परमात्मा के सिवाय और कुछ नहीं है। तब यह दूसरा क्या है? भगवान ने कहा- अरे बाबा। तुम्हारा जलता हुआ दिल और हमारा यह कमल के समान कोमल ठंडा-ठंडा हाथ मैं रखूंगा तो जल जायेगा। क्या तुम हमारा हाथ जलाना चाहती हो? गोपी ने कहा- नहीं-नहीं, हमारे हृदय में जो ताप है वह अग्नि का ताप नहीं है। यह सूर्य का ताप है विरह को सूर्य बताते हैं; जैसे- सूर्य में दो गुण होते हैं- एक तापक और प्रकाशक, वैसे ही विरह में भी दो गुण हैं। विरह में एक तो हता है ताप जलन, दुःख और दूसरे प्रकाश होता है। प्रकाश कैसा होता है? आप देखना जब तक आदमी अपने पास रहता है तब तक उसके गुण नहीं मालूम पड़ते; जब वह दूर चला जाता है या बिछुड़ जाता है तब लगता है कि वह बहुत अच्छा था भाई, उसमें गुण सूझने लगता है। तो विरह एक ओर तापक है, दाहक है तो दूसरी ओर प्रकाशक भी है। जब श्रीकृष्ण गोपियों के बीच में नृत्य कर रहे हैं, तब तो गोपियाँ कहती थीं ‘हम बड़ी सुन्दरी हैं, हमारे ऊपर कृष्ण मोहित हैं’, क्या पूछना है। अभिमान हो गया। और जब चले गये तो हा कृष्ण। हा कृष्ण। हा कृष्ण। तुम्हारे बिना तो हम कुछ हैं ही नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
प्रवचन संख्या | विषय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज