विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों में दास्य का हेतु-2नारायण। हसितावलोक में सायुज्य है। क्योंकि यह तो भगवान् के स्वरूपभूत ही है। बोले- नहीं, यह तो उपासकों की मुक्ति है, हमको तो नितान्त आत्यान्तिक मुक्ति चाहिए। लेकिन भक्त लोक मुक्ति नहीं चाहते; सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य, सार्ष्टि, एकत्व- कोई मुक्ति नहीं चाहते। दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः । भगवान् तो कहते हैं कि लो मुक्ति, लो मुक्ति, हम तुमको छोड़ते हैं- पेन्शन देंगे तुमको, अपने घर में रहो, अपने आत्मा में, स्वरूप में, स्थित हो जाओ; ब्रह्मनिष्ठ हो जाओ, आत्मनिष्ठ हो जाओ। प्रेमी ने कहा कि पहले हमें कृष्णनिष्ठ होने दो, बाद में हम स्वनिष्ठ होंगे। स्वनिष्ठा में और प्रेमनिष्ठा में विरोध है। प्रेमी कहता है कि कैवल्य हमको भी चाहिए, परंतु हमारा कैवल्य यही है कि तुम्हारी दोनों बाँहों के भीतर हम अकेले रहें। कैवल्य माने अकेला; केवल में जो बीच में ‘व’ है उसे यदि पहले रख दिया और ‘वके’ को ‘अके’ बोलने लगे तो ‘अकेल’ हो गया। ‘अकेल’ ही हिंदी में अकेला हो गया है। तो कैवल्य माने अकेलापन। प्रेम कहता है कि हमको अकेलापन तो अच्छा लगता है, परंतु तुम्हारी बाहों के भीतर अकेलापन अच्छा लगता है, उसके बाहर नहीं। इसके लिए ही शब्द प्रयुक्त किया है- दत्ताभयं च भुजदण्डयुगं विलोक्य । यह वीर-रस के द्वारा श्रृंगार-रस को पुष्ट करने के लिए है; जहाँ वीर-रस होता है, वहाँ श्रृंगार का भाव परिपुष्ट होता है। श्रृंगार-रस का मित्र है, वीर-रस। रसों में भी आपस में मैत्री होती है। जैसे आप समझो कि श्रृंगार-रस का हो प्रसंग और आँख गुस्से से लाल-लाल हो जायँ तो रौद्र रस आ गया। श्रृंगार में रौद्र रस श्रृंगार रस का शत्रु है। और श्रृंगार-रस का प्रसंग होने, और छाती पीट-पीटकर ‘हाय, हमारी नानी मर गयी,’ रोने लग गये, तो यह करुण-रस जो है वह भी श्रृंगार-रस का शत्रु है। श्रृंगार में रौद्र, भयानक, बीभत्स, करुण, शान्त, सभी शत्रु हैं। शांत-रस भी श्रृंगार-रस में बाधक है। श्रृंगार-रस का प्रसंग होय और समाधि लगाकर बैठ गये, तो वह तो शत्रु हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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