विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों में दास्य का हेतु-1तो पुरुषभूषण- एक तो हीरा, और वह भी ऐसे सोने में मढ़ा गया हो जो बिल्कुल ‘कुन्दन’ हो और हीरा भी कैसा कि ऐसा सुडौल काटा गया हो और उसमें ऐसी चिलक निकले; वैसी महाराज श्यामसुन्दर की मुस्कान है। त्वत्सुन्दरस्मिता निरीक्षण। उसी की मारी ये गोपी हैं- तीव्रकामतप्तात्मनाम्। तो गोपी को आत्मा-पुरुष नहीं चाहिए, अन्तर्यामी पुरुष नहीं चाहिए, ब्रह्मपुरुष नहीं चाहिए, उनको तो चाहिए पुरुषभूषण-
गोपियों का अभूषण कौन है? उनकी आँख का अञ्जन कौन है? उनके हृदय पर नीलमणि कौन है? उनके कान पर कुण्डल कौन है? अरे, उसके लिए ही वे व्याकुल हैं- तीव्रकामतप्तात्मनां। जब श्रीकृष्ण की प्राप्ति की इच्छा हुई, तो यह इच्छा काम नहीं है, यह तो काम का परदादा है, भला। काम तो वह होता है जो दुनिया की छोटी-छोटी चीजों में फँसा दे। देखो, मन में मोह हो तो मोहन से करो, संसार से क्यो करतें हो? मोहन से मोह का नाम भक्ति है, भला। एक बार हम किसी महात्मा के पास थे, तो व्याख्या कर रहे थे कि धन के लिए तुम्हारे मन में लोभ है तो लोभ को रहने दो, परंतु धन को निकल दो, लोभ भगवान का करो। तुम्हारे मन में काम है तो काम भगवान के साथ करो। ये काम, लोभ आदि विकार नहीं रहेंगे, भक्ति हो जायेंगे। ज्यादा ढोंग नहीं करना चाहिए कि हम तो निष्काम, निर्लोभ हैं। एक दिन मैंने एक हँसी की बात पढ़ी, किसी अखबार में। दो बच्चे आपस में लड़ रहे थे कि उनके बीच जो एक कुत्ता (खिलौना) था उसे कौन ले कि छोटा भाई ले। इतने में उनका बाप आ गया। उसने पूछा कि क्यों लड़ रहे हो? बच्चों ने कहा कि हम लोगों में शर्त लगी है कि जो ज्यादा झूठ बोले वही इस कुत्ते को ले ले, इसलिए ये एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर झूठ बोल रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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