विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों में दास्य का उदयमोह यदि धर्मानुकूल है तो वह धर्म से प्रतिकूल निर्मोह से श्रेष्ठ है-
निर्मोह है तो, मोह है तो, परंतु भगवान से है। विषय का परिवर्तन, वृत्ति का परिवर्तन, भक्ति सिद्धांत की विलक्षण बात है। भक्त सिद्धांत में प्रेम को आरंभिक मानते हैं, वह शुरू-शुरू की चीज है। प्रेम उसको कहते हैं कि ऐसा भाव का बन्धन आ जाय कि फिर छूटने की शंका न रहे। ऐसी स्थिति में जो पहुँचा हुआ भाव-बन्धन उसको प्रेम बोलते। इसमें तृप्ति लेना भी है और तृप्ति देना भी है। प्रेम से ऊपर होता है स्नेह। स्नेह में देना-लेना नहीं है; अपने हृदय के स्नेह से प्रेमास्पद को तर कर देना यह स्नेह है। माता स्नेह करती है पुत्र से, गाय स्नेह करती है बछड़े से; अपने हृदय में जितनी चिकनाई है, स्निधता है उसको अपने पुत्र को देती है, परंतु स्नेह अपने बच्चे से करना दूसरी चीज है; और भगवान से स्नेह हो जाना, यह दूसरी चीज है। संसार में अपने से छोटे हैं उनसे स्नेह होता है। और योगदर्शन की दृष्टि से स्नेह एक क्लिष्ट वृत्ति है, रागवृत्ति के अंतर्गत; और उसका निरोध करके समाधि में स्थित होना पड़ता है। भक्ति की दृष्टि से भगवान को स्नेह करके उनको अपना बालक बना लेते हैं। वेदान्त की दृष्टि से स्नेह वृत्ति किस दिशा में है- विषयानुकूल है कि धर्मानुकूल है कि विरोधानुकूल है- इससे मतलब नहीं, मतलब इससे है कि आत्मा और ब्रह्म की एकता और ज्ञान से वह बाधित हो गया कि नहीं। भक्ति-सिद्धांत में स्नेह से ऊपर भी मान है, क्योंकि स्नेह झटसे गल जाता है। स्नेह घृत है, मान मधु है। जैसे घी खुद में मीठा नहीं होता, उसमें शक्कर मिलाओ तब मीठा होता है; और जैसे घी जरा-सा ताप लगने पर ही गल जाता है; और इससे विपरीत जैसे मधु खुद में मीठा होता है, परंतु ताप लगने से वह गलता नहीं है; उसी प्रकार मधुरूप मान घृतरूप स्नेह से अधिक मीठा और स्थायी है। इसी से शास्त्र में स्नेह से भी बड़ा मान को मानते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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