विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों में दास्य का उदयअब जरा लक्ष्मीजी की तकलीफ देखो। गोपी कृष्ण की चरणधूलि की कामना करती हैं। तो चरणारविन्द की रज की कामना से उनका जो अभिमान था बड़प्पन का, वह चला गया। किसी के चरणों की धूलि होने की इच्छा और बड़प्पन का अभिमान ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते। तो अभिमान गया। अब दूसरी बात देखो, अपनी सफाई देने का तरीका। अपने दिल की बात बताने की रीति भी बड़ी विलक्षण है। ‘श्रीर्यत्पदाम्बुजरजश्चकमे’ लक्ष्मीजी जिनके चरणरज की कामना करती हैं; जब लक्ष्मीजी करती हैं तो हम चरणरज की कामना करती हैं तो हमारी कामना तो उचित ही है। अब कहती हैं- ‘तुलस्या लब्ध्वापि वक्षसि पदं किल भृत्यजुष्टम्’ इसमें तीन बातें हैं। जब लक्ष्मीजी आयीं तब पहले पहल उनका यही ख्याल था कि हम भगवान् की छाती पर ही बैठेंगे। थोड़े दिनों में उनका ख्याल हुआ कि हम वक्षस्थल पर नहीं भगवान् के तलवे पर बैठेंगी। झट उतर गयीं छाती पर से और सामने आकर खड़ी हो गयी। तो भगवान् ने कहा अरे प्रिये, क्या कर रही हो? तुम्हारे लिए ख़ाली स्थान वक्षस्थल पर है, बस, हम तो दो ही वस्तु का आदर करते हैं- एक तो ब्राह्मण के चरणचिह्न को हम अपने वक्षस्थल पर धारण करते हैं, और एक तुमको हम अपने वक्षस्थल पर धारण करते हैं। दोनों से डरते हैं; किसी को हर वक्त छाती पर चढ़ाये रखना यह बिना डरे कैसे होगा? अरे बाबा, प्रेम तो कभी धरती पर बैठावे, अभी शिर पर बैठावे, कभी छाती में बैठावे, कभी मुँह की ओर रखे। कभी पीठ की ओर रखे, प्रेम का मतलब यह थोड़े है कि हर समय छाती पर चढ़ा रहे। तो लक्ष्मी ने कहा- ना बाबा, अब हम छाती पर नहीं चढ़ेगी। भगवान् बोले- तो कहाँ रहोगी देवी अब? जब बड़े-बड़े लोग तुमको चाहते थे तो तुमने उनका तिरस्कार कर दिया था। तुमने कह दिया था कि यह तो बुड्ढा है। इन्द्र चाहता था तो कह दिया कि यह तो पापी है। रुद्र जब चाहते थे तो कह दिया कि यह तो प्रलय का देवता है। दुर्वासा चाहते थे तो कह दिया था कि क्रोधी है। मारर्कण्डेय चाहते थे तो कह दिया कि इनके तो ज्ञान ही नहीं है। तो सारी दुनियाँ को छोड़कर तुमने न जाने कौन सा गुण देख करके मुझे माला पहनायी। तो हम तुम्हारे इस त्याग का, इस वरण का बड़ा आदर करते हैं। इसलिए तुम अब हमारी छाती पर बैठो। लक्ष्मी जी बोलीं- अब हम छाती पर नहीं बैठेंगी, हम तो पाव में बैंठेगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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