विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजो जैसेहि तैसेहि उठि धायीं-3जारबुद्ध्यापि संगताः- जार शब्द का अभिप्राय बड़ा गंभीर है। जरयति इति जारः- जो भोगवासना को जला दै, उसका नाम जार है- ये श्रीकृष्ण जो हैं ये हमारी ऐन्द्रियक भोगवासना को जलाने वाला है। इसलिए जार बुद्ध्यापि संगताः इस जार बुद्धि से गोपी गयीं श्रीकृष्ण के पास। परंतु जहुर्गुणमयं देहं, उनके गुणमय देह का त्याग हो गया। जो जार मानते हैं उनका अभिप्राय बड़ा विलक्षण है। ये जो हमारी इन्द्रियाँ हैं इनका असली प्यारा कौन है? बड़ा धोखा होता है आदमी को समझने में, मालूम यह पड़ता है कि फूल हमको प्यारा है या भोजन हमको प्यारा है; जीभ कहती है कि भोजन प्यारा है, आँख कहती है कि गुलाब का फूल प्यारा है। लेकिन असल में गुलाब को देखकर आँख को जो सुख होता है वह उसको गुलाब को नहीं देती, खुद को भी नहीं देती, अपने भीतर के चैतन्य ले जा करके सुख दे देती है। भोजन मं जो सुख जीभ को है, वह क्या जीभ भोजन को सुख देती है या स्वयं सुख लेती है? वह तो भोजन में से सुख लेकर भीतर जो चैतन्य बैठा हुआ है उसको ले जाकर देती है। देखो, हमारी इन्द्रिय-वृत्तियों का और मनोवृत्तियों का असली प्यारा जो है वह तो भीतर बैठा हुआ है और हमारी इन्द्रिय-वृत्तियों ने झूठ-मूठ का नाता जोड़ रखा है संसार के बाह्य विषयों से। ये बाहर जो संबंध हैं वे दिखाऊ हैं- हमको भोजन प्यारा है, रूप प्यारा है, रस प्यारा है, गंध प्यारी है, ये सब हमारे ब्याहते हैं। पर जो असली प्यारा है वह तो हृदय-मंदिर में, नित्यनिकुंज में, वृन्दावन में, छिपा हुआ है। जार भाव का अर्थ है कि बाहर से इन्द्रियों का ब्याह विषयों से मालूम पड़ता है लेकिन उनके असली प्यारे भीतर-हृदय-वृन्दावन में बैठे हुए हैं, नित्यनिकुंज में विहार कर रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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