विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीरास में चंद्रमा का योगदानएक दिन गोपी बैठी और ध्यान करने लगी- हमारी नाक ऐसी, हमारी आँख ऐसी, हमारा कपोल ऐसा, हमारी बाँह ऐसी बढ़िया! अब महाराज भगवान ने देखा कि यह तो अपने आप में डूबी हुई है, कोई योगिनी होगी, कोई वेदान्तिनी होगी, छोड़ो इसको। ये वेदान्तिनी भी एक सखी होती है- अपने स्वरूप में डूबी हुई; इन्हीं लोगों से भगवान अन्तर्धान रहते हैं। कहा क्यों? वह तो अपने स्वरूप में डूबी हुई है, भगवान को भूल गयी। योगिनी सखी भी ध्यानमग्ना हो गयी। अब एक दूसरी सखी को देखा तो उसके हृदय में थे भगवान। बोले- वाह! मैं यहाँ अच्छा लगता हूँ। हम कलेजे में अच्छा लगते हैं। तो भगवान अपने ही सत्सार को, अपने चित्सार को, अपने ही आनन्दसार को गोपियों के हृदय में स्थापित करके और उसके प्रेम के उपादान से सच्चिदानन्द स्वरूप को साकार बनाकर अपने आप पर रीझते हैं। वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः । अपने आपको रखकर वीक्ष्य माने वीक्षण किया- वीक्षण किया माने बनाया। प्रत्येक गोपी के हृदय को कृष्णाकार बनाकर प्रत्येक गोपी के हृदय को कृष्ण-प्रेमरस-मग्न बनाया। प्रत्येक गोपी का हृदय तो रसगुल्ले की तरह है उसमें जो चासनी है, वह प्रेम है। सच्चिदानन्द छेना है, प्रेम उसमें चासनी है। सच्चिदानन्द तो सनकादिकों के मन में भी रहता है, हृदय में रहता है, लेकिन वहाँ वह रसीला नहीं हैं; बिना चासनी का सच्चिदानन्द सनकादिकों के हृदय में है। और प्रेम रस की चासनी वाला सच्चिदानन्द गोपियों के हृदय में है। सनकादिकों के हृदय में सच्चिदानन्द है परंतु ममत्व नहीं है- बिना ममत्व एकत्व न होई। बिना ममता के प्रेम नहीं होता, अपना बनाना पड़ता है भगवान को! तब रस होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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