योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
तेरहवाँ अध्याय
कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह
जब चारों ओर से यही आवाज गूँज उठी और यादव मरने-मारने पर बद्धपरिकर हो गए तो कृष्ण ने अपना मौन तोड़ा और बोले, "हे भाइयों, आपका यह विचार ठीक नहीं कि अर्जुन ने हमारा अपमान किया। मेरी समझ में तो उसने हमारी प्रतिष्ठा ही बढ़ाई है। वह जानता था कि हमारे वंश में बदला लेकर लड़की देना निषिद्ध है। स्वयंवर में सफलता की उसे पूरी आशा नहीं थी। उसके पद और वीरता से यह संभव नहीं था कि वह आपसे कन्यादान माँगता। अतएव उसने क्षत्रियों की चाल चली। जैसे सुभद्रा परम रूपवती और गुण-सम्पन्ना है; वैसे ही अर्जुन भी प्रत्येक प्रकार से उसके योग्य है। भरत का वंशज, शान्तनु का पोता और कुंतिभोज का नाती वह किसी प्रकार उसके अयोग्य नहीं कहा जा सकता। मुझको आज सारी पृथ्वी पर उसके समान कोई वीर दिखाई नहीं देता। किसका हौसला है जो लड़ाई में अर्जुन का मुकाबला कर सके। उससे बाजी मार के जाना कठिन है, उसकी वीरता अपने आपमें आदर्श है। इसलिए मेरी सम्मति है कि इसमें उत्तेजना से काम नहीं लिया जाय वरन् उसे बुलाकर उसका विवाह सुभद्रा से कर दिया जाय। यदि हम उससे लड़े और पराजित हुए तो इसमें हमारी हँसी होगी। मेल कर लेने में कोई हँसी नहीं।" सारांश यह कि इस प्रकार कृष्ण ने अपने भाइयों का क्रोध ठंडा किया। उनकी बात से सब सहमत हुए और अर्जुन को बुलाकर उनके साथ सुभद्रा का विवाह कर दिया। अर्जुन सुभद्रा के साथ विवाह कर कुछ दिन तक वहाँ रहा और बारह वर्ष पूरे होने पर अपनी धर्मपत्नी को लेकर इन्द्रप्रस्थ चला गया। जब अर्जुन के इन्द्रपस्थ पहुँचने की खबर आई तो कृष्ण अपने भाई-बंधुओं सहित बड़ी धूमधाम से सुभद्रा का दहेज लेकर चले। इस दहेज में युधिष्ठिर आदि के लिए पृथक-पृथक उत्तम-उत्तम भेंट थी। इन्द्रप्रस्थ वालों ने जिस तरह कृष्ण और उसके साथियों का स्वागत किया, वह निम्न वर्णन से भली प्रकार प्रकट होता है। राजकुमार नकुल और सहदेव ने नगर से बाहर जाकर मेहमानों का स्वागत किया और फिर उन्हें बड़ी धूमधाम से गाजे-बाजों और पताकाओं के साथ शहर में ले आये। शहर की गलियाँ इस उत्सव के लिए साफ की गई और उन पर छिड़काव किया गया। सब बाजार, गली और कूचे रंग-बिरंगे फूलों और हरियाली से सजे हुए थे। इन फूलों पर चन्दन का छिड़काव हो रहा था जिससे चारों ओर सुगन्धि फैल रही थी। नगर के हर कोने में सुगन्धि जलाई गई थी जिससे कहीं दुर्गन्ध न रहे। नगर के बाहर विद्वान ब्राह्मण स्वागत के लिए गए। सबने रीति के अनुसार कृष्ण की पूजा की। स्वयं महाराज युधिष्ठिर आदरपूर्वक आगे बढ़े और उन्हें गले लगाकर अन्तःपुर में गए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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