योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
चौबीसवाँ अध्याय
विदुर और कृष्ण का वार्तालाप
दूसरे दिन की प्रातःकाल श्रीकृष्ण ने अपने नित्यकर्म से छुट्टी भी नहीं पाई थी कि दुर्योधन उन्हें अपने दरबार में ले चलने के लिए आ पहुँचा। श्रीकृष्ण सन्ध्या और अग्निहोत्रादि से निवृत्त होकर उसके साथ दरबार में पहुँचे जहाँ धृतराष्ट्र, भीष्म और द्रोणादि ने खड़े होकर उनका स्वागत किया। कुछ इधर-उधर की बातचीत होने के उपरान्त कृष्णचन्द्र ने धृतराष्ट्र से इस प्रकार कहा- "हे राजन! आपका कुल सारे आर्यावर्त में शिरोमणि है। शास्त्र-मर्यादा में इस कुल ने बड़ी प्रतिष्ठा पाई है। आपका वंश ऐसा पवित्र है जो सदा दूसरों के दुःख को अपना दुःख समझता आया है और जिसने कभी धर्म का त्याग नहीं किया। दीनों पर दया और सदाचरण में भी आपका कुल जगत-विख्यात है। ऐसे कुल से कभी किसी निन्दनीय कार्य की आशा नहीं की जा सकती। इसलिए यही उचित है कि पाण्डवों से आपका मेल हो जाये। मैं मेल कराने आया हूँ। यदि इधर से आप मेल करने पर राजी हो गये और उधर मैंने कोशिश की तो मेल हो जाना असम्भव नहीं। दोनों का भला इसी में है कि आपस में मिलके निपट लें। आपस में मेल हो जाने से किसी की सामर्थ्य नहीं होगी कि वे आपके कुल वालों पर कुदृष्टि डाल सकें। पृथ्वी का राज्य तुम्हारे अधीन हो जाएगा। किन्तु यदि यह लड़ाई छिड़ गई तो सारे जीवों की हत्या का भार भी आपके सिर पर ही रहेगा। यदि पाण्डव मारे गये तब भी आपको दुःख होगा। यदि आपके पुत्र मरे तो आपका जीवन ही वृथा हो जाएगा। हे राजन! देखो, देश के सारे राजा-महाराजा लड़ाई पर कमर बाँधे तैयार हैं। इस लड़ाई में सबकी बरबादी है। इसमें न छोटा बचेगा और न बड़ा। इसलिए हम पर दया करें और लड़ाई को बन्द करें, नहीं तो लहू की नदी बह निकलेगी और सारे भारतवासी इसमें लगभग नष्ट हो जाएँगे।" "हे नृप! अपनी प्रजा को इस आपत्ति से बचाएँ। पांडव भी आपके ही अंश हैं। अब उनके पिता परलोक सिधारे तो वे बालक थे। आपने उनका पालन-पोषण किया और निज संतान के समान शिक्षा दी। अतः उन्हें निज संतान समझकर ही उन पर दया करें और इस लड़ाई को बन्द करें।" "बेचारा युधिष्ठिर तो धर्म के लिए प्राण देने को भी तैयार है। इस समय तक वह आपकी आज्ञा-पालन करता आया है। आपके पुत्रों ने उनसे बारम्बार बुरा बर्ताव किया, परन्तु उन्होंने कभी आपका या आपके पुत्रों का बुरा नहीं विचारा। देखो, आपके पुत्रों ने द्रौपदी का कैसा अपमान किया। उसके केश पकड़कर उसे सभा में घसीट लाये, परन्तु तब भी पाण्डवों ने सहन किया और बखेड़ा नहीं बढ़ाया। इसलिए कल्याण इसी में है कि युधिष्ठिर को उसका हक देकर इस बखेड़े को शान्त करें। मैं दोनों का शुभचिन्तक हूँ, इसलिए धर्म के नाम पर, दोनों के कल्याण के नाम पर आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप सन्धि कर लें, नहीं तो इसका अन्त बड़ा भयानक होगा, और उसके उत्तरदाता भी आप होंगे।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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