योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 104

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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चौबीसवाँ अध्याय
विदुर और कृष्ण का वार्तालाप


धृतराष्ट्र की सभा में कृष्ण का दूतत्त्व

दूसरे दिन की प्रातःकाल श्रीकृष्ण ने अपने नित्यकर्म से छुट्टी भी नहीं पाई थी कि दुर्योधन उन्हें अपने दरबार में ले चलने के लिए आ पहुँचा। श्रीकृष्ण सन्ध्या और अग्निहोत्रादि से निवृत्त होकर उसके साथ दरबार में पहुँचे जहाँ धृतराष्ट्र, भीष्म और द्रोणादि ने खड़े होकर उनका स्वागत किया। कुछ इधर-उधर की बातचीत होने के उपरान्त कृष्णचन्द्र ने धृतराष्ट्र से इस प्रकार कहा-

"हे राजन! आपका कुल सारे आर्यावर्त में शिरोमणि है। शास्त्र-मर्यादा में इस कुल ने बड़ी प्रतिष्ठा पाई है। आपका वंश ऐसा पवित्र है जो सदा दूसरों के दुःख को अपना दुःख समझता आया है और जिसने कभी धर्म का त्याग नहीं किया। दीनों पर दया और सदाचरण में भी आपका कुल जगत-विख्यात है। ऐसे कुल से कभी किसी निन्दनीय कार्य की आशा नहीं की जा सकती। इसलिए यही उचित है कि पाण्डवों से आपका मेल हो जाये। मैं मेल कराने आया हूँ। यदि इधर से आप मेल करने पर राजी हो गये और उधर मैंने कोशिश की तो मेल हो जाना असम्भव नहीं। दोनों का भला इसी में है कि आपस में मिलके निपट लें। आपस में मेल हो जाने से किसी की सामर्थ्य नहीं होगी कि वे आपके कुल वालों पर कुदृष्टि डाल सकें। पृथ्वी का राज्य तुम्हारे अधीन हो जाएगा। किन्तु यदि यह लड़ाई छिड़ गई तो सारे जीवों की हत्या का भार भी आपके सिर पर ही रहेगा। यदि पाण्डव मारे गये तब भी आपको दुःख होगा। यदि आपके पुत्र मरे तो आपका जीवन ही वृथा हो जाएगा। हे राजन! देखो, देश के सारे राजा-महाराजा लड़ाई पर कमर बाँधे तैयार हैं। इस लड़ाई में सबकी बरबादी है। इसमें न छोटा बचेगा और न बड़ा। इसलिए हम पर दया करें और लड़ाई को बन्द करें, नहीं तो लहू की नदी बह निकलेगी और सारे भारतवासी इसमें लगभग नष्ट हो जाएँगे।"

"हे नृप! अपनी प्रजा को इस आपत्ति से बचाएँ। पांडव भी आपके ही अंश हैं। अब उनके पिता परलोक सिधारे तो वे बालक थे। आपने उनका पालन-पोषण किया और निज संतान के समान शिक्षा दी। अतः उन्हें निज संतान समझकर ही उन पर दया करें और इस लड़ाई को बन्द करें।"

"बेचारा युधिष्ठिर तो धर्म के लिए प्राण देने को भी तैयार है। इस समय तक वह आपकी आज्ञा-पालन करता आया है। आपके पुत्रों ने उनसे बारम्बार बुरा बर्ताव किया, परन्तु उन्होंने कभी आपका या आपके पुत्रों का बुरा नहीं विचारा। देखो, आपके पुत्रों ने द्रौपदी का कैसा अपमान किया। उसके केश पकड़कर उसे सभा में घसीट लाये, परन्तु तब भी पाण्डवों ने सहन किया और बखेड़ा नहीं बढ़ाया। इसलिए कल्याण इसी में है कि युधिष्ठिर को उसका हक देकर इस बखेड़े को शान्त करें। मैं दोनों का शुभचिन्तक हूँ, इसलिए धर्म के नाम पर, दोनों के कल्याण के नाम पर आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप सन्धि कर लें, नहीं तो इसका अन्त बड़ा भयानक होगा, और उसके उत्तरदाता भी आप होंगे।"

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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