युधिष्ठिर का कर्ण के लिये शोक प्रकट करते हुए प्रेतकृत्य सम्पन्न करना

महाभारत स्त्री पर्व में श्राद्ध पर्व के अंतर्गत 27वें अध्याय में युधिष्ठिर का कर्ण के लिये शोक प्रकट करते हुए प्रेतकृत्य सम्पन्न करने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

युधिष्ठिर का विलाप करना

वैशम्पायन कहते हैं- महाराज! माता कुन्ती का यह अप्रिय वचन सुनकर समस्त पाण्डव कर्ण के लिये बार-बार शोक करते हुए अत्यन्त कष्ट में पड़ गये। तदन्तर पुरुषसिंह वीर कुन्ती पुत्र युधिष्ठिर सर्प के समान लंबी सांस खींचते हुए अपनी माता से बोले- माँ! जो बड़े-बड़े महारथियों को डुबो देने के लिये अत्यन्त गहरे जलासय के समान थे, बाण ही जिनकी लहर, ध्वजा भँवर, बड़ी-बड़ी भुजाएँ महान ग्राह और हथेली का शब्द ही गंभीर गर्जन था, जिनके बाणों के गिरने की सीमा में आकर अर्जुन के सिवा दूसरा कोई वीर टिक नहीं सकता था वे सूर्य कुमार तेजस्वी कर्ण पूर्व काल में आपके पुत्र कैसे हुए? जिनकी भुजाओं के प्रताप से हम सब ओर से संतप्त रहते थे, कपड़े में ढकी हुई आग के समान उन्हें अब तक आपने कैसे छिपा रखा था। धृतराष्ट्र के पुत्रों ने सदा उन्हीं के बाहुबल का भरोसा कर रखा था, जैसे कि हम लोगों ने गाण्डीवधारी अर्जुन के बल का आश्रय लिया था। कुन्तीपुत्र कर्ण के सिवा दूसरा कोई रथी ऐसा बड़ा बलवान नहीं हुआ है, जिसने समस्त राजाओं की सेना को रोक दिया हो। वे समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ कर्ण क्या सचमुच हमारे बड़े भाई थे? आपने पहले उन अद्भुत पराक्रमी वीर को कैसे उत्पन्न किया था?[1]

अहो! आपने इस गूढ़ रहस्य को छिपाकर हम लोगों को मार डाला। कर्ण की मृत्यु से भाईयों सहित हमें बड़ी पीड़ा हो रही है। अभिमन्यु, द्रौपदी के पुत्र और पाञ्चालों के विनाश से और कुरुकुल के इस पतन से हमें जितना दुख हुआ था उससे सौ गुना यह दुख इस समय मुझे अत्यन्त व्यथित कर रहा है। अब तो मैं केवल कर्ण के ही शोक में डूब गया हूँ और इस तहर जल रहा हूँ, मानो किसी ने जलती आग में रख दिया हो। यदि पहले ही यह बात मुझे मालूम हो गयी होती तो कर्ण को पाकर हमारे लिये इस जगत में कोई स्वर्गीय वस्तु भी अलभ्य नहीं होती तथा कुरुकुल का अंत कर देने बाला यह घोर संग्राम भी नहीं हुआ होता। राजन! इस प्रकार बहुत विलाप करके धर्मराज युधिष्ठिर फूट-फूट कर रोने लगे।[2]

युधिष्ठिर द्वारा कर्ण का प्रेतकृत्य करना

रोते-रोते उन्होंने धीरे-धीरे कर्ण के लिये जलदान किया। यह सब सुनकर वहाँ एकत्र हुई सारी स्त्रियाँ जो वहाँ जलांजलि देने के लिये सब ओर खड़ी थीं सहसा जोर-जोर से रोने लगीं। तदन्तर बुद्धिमान कुरुराज युधिष्ठिर ने भाई के प्रेम से कर्ण की स्त्रियों को परिवार सहित बुलवा लिया और उन सबके साथ रहकर उन धर्मात्मा बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर ने विधिपूर्वक कर्ण का प्रेतकृत्य सम्पन्न किया। तदन्तर वे बोले- मुझ पापी ने इस रहस्य को न जानने के कारण अपने बड़े भाई को मरवा दिया। अतः आज से स्त्रियों के मन में कोई गुप्त रहस्य नहीं छिपा रह सकेगा। ऐसा कहकर व्याकुल इन्द्रियों वाले राजा युधिष्ठिर गंगा जी के जल से निकले और समस्त भाईयों के साथ तट पर आये।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 27 श्लोक 1-20
  2. 2.0 2.1 महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 27 श्लोक 21-29

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