विदुर का धृतराष्ट्र को शोक त्यागने के लिए कहना

महाभारत स्त्री पर्व में जलप्रदानिक पर्व के अंतर्गत द्वितीय अध्याय में विदुर का धृतराष्ट्र को शोक त्याग करने के लिए समझाने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

विदुर का धृतराष्ट्र को समझाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्‍तर विदुर जी ने पुरुष प्रवर धृतराष्ट्र को अपने अमृत समान मधुर वचनों द्वारा आहाद प्रदान करते हुए वहाँ जो कुछ कहा, उसे सुनो।

विदुर जी बोले- राजन! आप धरती पर क्‍यों पड़े हैं? उठकर बैठ जाइये और बुद्धि के द्वारा अपने मन को स्थिर कीजिये। लोकेश्‍वर! समस्‍त प्राणियों की यही अन्तिम गति है। सारे संग्रहों का अन्‍त उनके क्षय में ही है। भौतिक उन्नतियों का अन्‍त पतन में ही है। सारे संयोगों का अन्‍त वियोग में ही है। इसी प्रकार सम्‍पूर्ण जीवन का अन्‍त मृत्यु में ही होने वाला है। भरतनन्‍दन! क्षत्रियशिरोमणे! जब शूरवीर और डरपोक दोनों को ही यमराज खींच ले जाते हैं, तब वे क्षत्रिय लोग युद्ध क्‍यों न करते! महाराज! जो युद्ध नहीं करता, वह भी मर जाता है और जो संग्राम में जूझता है, वह भी जीवित बच जाता है। काल को पाकर कोई भी उसका उल्‍लंघन नहीं कर सकता। जितने प्राणी हैं, वे जन्‍म से पहले यहाँ व्‍यक्त नहीं थे। वे बीच में व्‍यक्त होकर दिखायी देते हैं और अन्‍त में पुन: उनका अभाव (अव्‍यक्त रूप से अवस्‍थान) हो जाएगा। ऐसी अवस्‍था में उनके लिये रोने-धोने की क्‍या आवश्‍यकता है? शोक करने वाला मनुष्‍य न तो मरने वाले के साथ जा सकता है और न मर ही सकता है। जब लोक की ऐसी ही स्‍वाभाविक स्थिति है, तब आप किस लिये शोक कर रहे हैं? कुरुश्रेष्ठ! काल नाना प्रकार के समस्‍त प्राणियों को खींच लेता है। काल को न तो कोई प्रिय है और न उसके द्वेष का ही पात्र है। भरतश्रेष्ठ! जैसे हवा तिनकों को सब ओर उड़ाती और डालती रहती है, उसी प्रकार समस्‍त प्राणी काल के अधीन होकर आते-जाते हैं। जो एक साथ संसार की यात्रा में आये हैं, उन सबको एक दिन वहीं (परलोक में) जाना है। उनमें से जिसका काल पहले उपस्थित हो गया, वह आगे चला जाता है। ऐसी दशा में किसी के लिये शोक क्‍या करना है? राजन! युद्ध में मारे गये इन वीरों के लिये तो आपको शोक करना ही नहीं चा‍हिये। यदि आप शास्त्रों का प्रमाण मानते हैं तो वे निश्चय ही परम गति को प्राप्‍त हुए हैं। वे सभी वीर वेदों का स्‍वाध्‍याय करने वाले थे। सबने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया था तथा वे सभी युद्ध में शत्रु का सामना करते हुए वीरगति को प्राप्‍त हुए हैं; अत: उनके लिये शोक करने की क्‍या बात है? ये अदृश्‍य जगत से आये थे और पुन: अदृश्‍य जगत में ही चले गये हैं। ये न तो आपके थे और न आप ही इनके हैं। फिर यहाँ शोक करने का क्‍या कारण है?

युद्ध में जो मारा जाता है, वह स्वर्ग लोक प्राप्‍त कर लेता है और जो शत्रु को मारता है, उसे यश की प्राप्ति होती है। ये दोनो ही अवस्‍थाएँ हम लोगों के लिये बहुत लाभदायक हैं। युद्ध में निष्‍फलता तो है ही नहीं।[1] भरतश्रेष्ठ! इन्‍द्र उन वीरों के लिये इच्‍छानुसार भोग प्रदान करने वाले लोकों की व्‍यवस्‍था करेंगे। वे सब-के-सब इन्‍द्र के अतिथि होंगे। युद्ध में मारे गये शूरवीर जितनी सुगमतासे स्‍वर्ग लोक में जाते हैं, उतनी सुविधा से मनुष्‍य प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञ, तपस्या और विद्या द्वारा भी नहीं जा सकते। शूरवीरों के शरीर रुपी अग्नियों में उन्‍होंने बाणों की आहुतियाँ दी हैं और उन तेजस्‍वी वीरों ने एक-दूसरे की शरीराग्नियों में होम किये जाने वाले बाणों को सहन किया है। राजन! इसलिये मैं आपसे कहता हूँ कि क्षत्रिय के लिये इस जगत में धर्मयुद्ध से बढ़कर दूसरा कोई स्‍वर्ग प्राप्ति का उत्तम मार्ग नहीं है। वे महामनस्‍वी वीर क्षत्रिय युद्ध में शोभा पाने वाले थे, अत: उन्‍होंने अपनी कामनाओं के अनुरुप उत्तम लोक प्राप्‍त किये हैं। उन सबके लिये शोक करना तो किसी प्रकार उचित ही नहीं है। पुरुषप्रवर! आप स्‍वयं ही अपने मन को सान्‍त्‍वना देकर शोक का प्ररित्‍याग कीजिये।[2]

आज शोक से व्‍याकुल होकर अपने शरीर का त्‍याग नहीं करना चाहिये। हम लोगों ने बारंबार संसार में जन्‍मलेकर सहस्रों माता-पिता सैकड़ों स्त्री-पुत्रों के सुख का अनुभव किया है; परन्‍तु आज वे किसके हैं अथवा हम उनमें से किसके हैं? शोक के हजारों स्‍थान हैं और भय के भी सैकड़ों स्‍थान हैं। वे प्रतिदिन मूढ़ मनुष्‍य पर ही अपना प्रभाव डालते हैं, विद्वान पुरुष पर नहीं। कुरुश्रेष्ठ! काल का किसी से प्रेम है और न किसी से द्वेष, उसका कहीं उदासीन भाव भी नहीं है। काल सभी को अपने पास खींच लेता है। काल ही प्राणियों को पकाता है, काल ही प्रजाओं का संहार करता है और काल ही सबके सो जाने पर भी जागता रहता है। काल का उल्‍लंघन करना बहुत ही कठिन हैं। रुप, जवानी, जीवन, धन का संग्रह, अरोग्‍य तथा प्रियजनों का एक साथ निवास- ये सभी अनित्‍य हैं, अत: विद्वान पुरुष इन में कभी आसक्त न हो। जो दु:ख सारे देश पर पड़ा है, उसके लिये अकेले आपको ही शोक करना उचित नहीं हैं। शोक करते-करते कोई मर जाय तो भी उसका वह शोक दूर नहीं होता है। यदि अपने में पराक्रम देखे तो शोक न करते हुए शोक के कारण का निवारण करने की चेष्ठा करे। दु:ख को दूर करने के लिये सबसे अच्‍छी दवा यही है कि उसका चिन्‍तन छोड़ दिया जाय, चिन्‍तन करने से दु:ख कम नहीं होता बल्कि और भी बढ़ जाता है। मन्‍दबुद्धि मनुष्‍य ही अप्रिय वस्‍तु का संयोग और प्रिय वस्‍तु का वियोग होने पर मानसिक दु:ख से दग्‍ध होने लगते हैं। जो आप यह शोक कर रहे हैं, यह न अर्थ का साधक है, न धर्म का और न सुख का ही। इसके द्वारा मनुष्‍य अपने कर्तव्‍य पथ से तो भ्रष्‍ट होता ही है, धर्म, अर्थ और कामरुप त्रिवर्ग से भी वञ्चित हो जाता है। धन की भिन्न-भिन्न अवस्‍था विशेष को पाकर असंतोषी मनुष्‍य तो मोहित हो जाते हैं; परन्‍तु विद्वान पुरुष सदा संतुष्‍ट ही रहते हैं।[2]

मनुष्‍य चाहिये कि वह मानसिक दु:ख को बुद्धि एवं विचार द्वारा और शारीरिक कष्‍ट को औषधियों द्वारा दूर करे, यही विज्ञान की शक्ति है। उसे बालकों के समान अविवेक पूर्ण बर्ताव नहीं करना चाहिये। मनुष्‍य का पूर्वकृत कर्म उसके सोने पर साथ ही सोता है, उठने पर साथ ही उठता है और दौड़ने पर भी साथ-ही-साथ दौड़ता है। मनुष्‍य जिस-जिस अवस्‍था में जो-जो शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसी-उसी अवस्‍था में उसका फल भी पा लेता है। जो जिस-जिस शरीर से जो-जो कर्म करता है, दूसरे जन्‍म में वह उसी-उसी शरीर से उसका फल भोगता है। मनुष्‍य आप ही अपना बन्‍धु है, आप ही अपना शत्रु है और आप ही अपने शुभ या अशुभ कर्म का साक्षी है। शुभ कर्म से सुख मिलता है और पाप कर्म से दु:ख, सर्वत्र किये हुए कर्म का ही फल प्राप्‍त होता है, कहीं भी बिना किये का नहीं। आप जैसे बुद्धिमान पुरुष अनेक विनाशकारी दोषों से युक्त तथा मूलभूत शरीर का भी नाश करने वाले बुद्धि विरुद्ध कर्मों में नहीं आसक्त होते हैं।[3]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-14
  2. 2.0 2.1 महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 2 श्लोक 15-30
  3. महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 2 श्लोक 31-37

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