विदुर द्वारा दुखमय संसार के गहन स्वरूप और उससे छूटने का उपाय

महाभारत स्त्री पर्व में जलप्रदानिक पर्व के अंतर्गत चौथे अध्याय में विदुर द्वारा दुखमय संसार के गहन स्वरूप और उससे छूटने का उपाय का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

दु:खमय संसार के गहन स्‍वरूप का वर्णन

धृतराष्ट्र ने पूछा- वक्ताओं में श्रेष्ठ विदुर! इस गहन संसार के स्‍वरूप का ज्ञान कैसे हो? यह मैं सुनना चाहता हूँ। मेरे प्रश्‍न के अनुसार तुम इस विषय का यथार्थ रूप से वर्णन करो।

विदुर जी ने कहा- महाराज! जब गर्भाशय में वीर्य और रज का संयोग होता है तभी से जीवों की गर्भवृद्धि रूप सारी क्रिया शास्त्र के अनुसार देखी जाती है।[2] आरम्‍भ में जीव कलिल (वीर्य और रज के संयोग) के रूप में रहता है, फिर कुछ दिन बाद पाँचवाँ महीना बीतने पर वह चैतन्‍य रूप से प्रकट होकर पिण्‍ड में निवास करने लगता है। इसके बाद वह गर्भस्‍थ पिण्‍ड सर्वांगपूर्ण हो जाता है। इस समय उसे मांस और रुधिर से लिपे हुए अत्‍यन्‍त अपवित्र गर्भाशय में रहना पड़ता है। फिर वायु के वेग से उसके पैर ऊपर की ओर हो जाते हैं और सिर नीचे की ओर। इस स्थिति में योनि द्वार के समीप आ जाने से उसे बड़े दुख सहने पड़ते हैं। फिर पूर्वकर्मों से संयुक्त हुआ वह जीव योनि मार्ग से पीड़ित हो उससे छुटकारा पाकर बाहर आ जाता है और संसार में आकर अन्‍यान्‍य प्रकार के उपद्रवों का सामना करता है। जैसे कुत्ते मांस की ओर झपटते हैं, उसी प्रकार बालग्रह उस शिशु के पीछे लगे रहते हैं। तदनन्‍तर ज्‍यों-ज्‍यों समय बीतता जाता है, त्‍यों-ही-त्यों अपने कर्मों से बँधे हुए उस जीव को जीवित अवस्‍था में नयी-नयी व्‍याधियाँ प्राप्‍त होने लगती हैं। नरेश्वर! फिर आसक्ति के कारण जिनमें रस की प्रतीति होती है, उन विषयों से घिरे और इन्द्रिय रूपी पाशों से बँधें हुए उस संसारी जीव को नाना प्रकार के संकट घेर लेते हैं। उनसे बँध जाने पर पुन: इसे कभी तृप्ति ही नहीं होती है। उस अवस्‍था में वह भले-बुरे कर्म करता हुआ भी उनके विषय में कुछ समझ नहीं पाता। जो लोग भगवान के ध्‍यान में लगे रहने वाले हैं, वे ही शास्त्र के अनुसार चलकर अपनी रक्षा कर पाते हैं। साधारण जीव तो अपने सामने आये हुए यमलोक को भी नहीं समझ पाता है। तदनन्‍तर काल से प्रेरित हो यमदूत उसे शरीर से बाहर खींच लेतेहैं और वह मुत्‍यु को प्राप्‍त हो जाता है। उस समय उसमें बोलने की भी शक्ति नहीं रहती। उसके जितिने भी शुभ या अशुभ कर्म हैं वे सामने प्रकट होते हैं। उनके अनुसार पुन: अपने आपको देह बन्‍धन में बँधता हुआ देखकर भी वह उपेक्षा कर देता है- अपने उद्धार का प्रयत्‍न नहीं करता।[1]

अहो! लोभ के वशीभूत होकर यह सारा संसार ठगा जा रहा है। लोभ, क्रोध और भय से यह इतना पागल हो गया है कि अपने आपको भी नहीं जानता।[1] जो लोग हीन कुल में उत्‍पन्न हुए हैं, उनकी निन्‍दा करता हुआ कुलीन मनुष्‍य अपनी कुलीनता में ही मस्‍त रहता है और धनी धन के घमंड से चूर होकर दरिद्रों के प्रति अपनी घृणा प्रकट करता है। वह दूसरों को मूर्ख बताता है, पर अपनी ओर कभी नहीं देखता। दूसरों के दोषों के लिये उन पर आक्षेप करता है, परन्‍तु उन्‍हीं दोषों से स्‍वयं को बचाने के लिये अपने मन को काबू में नहीं रखना चाहता। जब ज्ञानी और मूर्ख, धनवान और निर्धन, कुलीन और अकुलीन तथा मानी और मानरहित सभी मरघट में जाकर सो जाते हैं, उनकी चमड़ी भी नष्ट हो जाती है और नाड़ियों से बँधें हुए मांस रहित हड्डियों के ढेर रूप उनके नग्‍न शरीर सामने आते हैं, तब वहाँ खड़े हुए दूसरे लोग उनमें कोई ऐसा अन्‍तर नहीं देख पाते हैं, जिससे एक की अपेक्षा दूसरे के कुल और रूप की विशेषता को जान सकें। जब मरने के बाद श्‍मशान में डाल दिये जाने पर सभी लोग समान रूप से पृथ्‍वी की गोद में सोते हैं, तब वे मूर्ख मानव इस संसार में क्‍यों एक दूसरे को ठगने की इच्‍छा करते हैं? इस क्षण भंगुर जगत में जो पुरुष इस वेदोक्त उपदेश को साक्षात जानकर या किसी के द्वारा सुनकर जन्‍म से ही निरन्‍तर धर्म का पालन करता है, वह परम गति को प्राप्‍त होता है। नरेश्चर! जो इस प्रकार सब कुछ जानकर तत्त्व का अनुसरण करता है, वह मोक्ष तक पहुँचने के लिये मार्ग प्राप्‍त कर लेता है।[3]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 4 श्लोक 1-12
  2. ’एकरात्रोषितं कलिलं भवति पंचरात्राद् बुद्धद:’ एक रात में रज और वीर्य मिलकर ‘कलिल’ रूप होते हैं और पाँच रात में ‘बुद्बुद’ के आकार में परिणत हो जाते हैं। इत्‍यादि शास्त्र वचनों के अनुसार गर्भ के बढ़ने आदि की सारी क्रिया ज्ञात होती है।
  3. महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 4 श्लोक 13-20

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जलप्रदानिक पर्व

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