गांधारी का अपने अन्य पुत्रों तथा दु:शासन को देखकर विलाप करना

महाभारत स्त्री पर्व में स्त्रीविलाप पर्व के अंतर्गत 18वें अध्याय में वैशम्पायन ने अपने अन्य पुत्रों तथा दु:शासन को देखकर गांधारी का श्रीकृष्ण के सम्मुख विलाप करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

दु:शासन की मृत्यु पर गांधारी का विलाप

गान्धारी बोलीं- माधव! जो परिश्रम को जीत चुके थे, उन मेरे सौ पुत्रों को देखो, जिन्हें रणभूमि में प्रायः भीमसेन ने अपनी गदा से मार डाला है। सबसे अधिक दुख मुझे आज यह देखकर हो रहा है कि ये मेरी बालबहुऐं, जिनके पुत्र भी मारे जा चुके हैं, रणभूमि में केश खोले चारों ओर अपने स्वजनों की खोज में दौड़ रही हैं। ये महल की अट्टालिकाओं में आभूषणभूषित चरणों द्वारा विचरण करने वाली थीं; परंतु आज विपत्ति की मारी हुई ये इस खून से भीगी हुई वसुधा का स्पर्श कर रही हैं। ये दुख से आतुर हो पगली स्त्रियों के सामन झूमती हुई सब ओर विचरती हैं तथा बड़ी कठिनाई से गीधों, गीदड़ों और कौओं को लाशों के पास से दूर हटा रही हैं। यह पतली कमर वाली सर्वांग सुन्दरी दूसरी वधु युद्धस्थल का भयानक द्श्‍य देखकर दुखी होकर पृथ्वी पर गिर पड़ती हैं। महाबाहो! यह लक्ष्मण की माता एक भूमिपाल की बेटी है, इस राजकुमारी की दशा देखकर मेरा मन किसी तरह शांत नहीं होता है।। कुछ स्त्रियां रणभूमि में मारे गये अपने भाईयों को, कुछ पिताओं को और कुछ पुत्रों को देखकर उन महाबाहो वीरों को पकड़ लेती और वहीं गिर पड़ती हैं। अपराजित वीर! इस दारुण संग्राम में जिनके बन्धु बान्धव मारे गये हैं उन अधेड़ और बूढ़ी स्त्रियों का यह करुणाजनक क्रन्धन सुनो। महाबाहो। देखो, यह स्त्रियां परिश्रम और मोह से पीड़ित हो टूटे हुए रथों की बैठकों तथा मारे गये हाथी घोड़े की लाशों का सहारा लेकर खड़ी हैं।

श्रीकृष्ण! देखो, वह दूसरी स्त्री किसी आत्मीयजन के मनोहर कुण्डलों से सुशोभित हो और उंची नासिका वाले कटे हुए मस्तक को लेकर खड़ी है। अनघ! मैं समझती हूँ कि इन अनिन्ध सुन्दरी अवलाओं ने तथा मन्दबुद्धि वाली मैंने भी पूर्व जन्मों में कोई बड़ा भारी पाप किया है, जिसके फलस्वरूप धर्मराज ने हम लोगों को बड़ी भारी विपत्ति में डाल दिया है। जर्नादन! वृष्णिनन्दन! जान पड़ता है कि किये हुए पुण्य और पाप कर्मों का उनके फल का उपभोग किये बिना नाश नहीं होता है। माधव! देखो, इन महिलाओं की नई अवस्था है। इनके वक्ष स्थल और मुख दर्शनीय हैं। इनकी आंखों की वरुणियां और सिर के केश काले हैं। ये सब की सब कुलीन और सलज हैं। ये हंश के समान गद्गद स्वर में बोलती हैं; परंतु आज दुख और शोक के मोहित हो चहचहाती सारसियों के समान रोती विलखती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी हैं। कमलनयन। खिले हुए कमल के समान प्रकाशित होने वाले युवतियों के इन सुन्दर मुखों को यह सूर्य देव संतप्त कर रहे हैं। वासुदेव! मतवाले हाथी के समान घमण्ड में चूर रहने वाले मेरे ईश्‍यालु पुत्रों की इन रानियों को आज साधारण लोग देख रहे हैं। गोविन्द! देखो, मेरे पुत्रों की ये सौ चन्द्रकार चिह्नों से सुशोभित ढालें, सूर्य के समान तेजस्विनी ध्वजाऐं, स्ववर्ण में कवच, सोने के निष्क तथा सिरस्त्राण घी की उत्तम आहुति पाकर प्रज्वलित हुई अग्नियों के समान पृथ्वी पर देदीप्तमान हो रहे हैं।[1]

शत्रुघाती शूरवीर भीमसेन ने युद्ध में जिसे मार गिराया तथा जिसके सारे अंगों का रक्त पी लिया, वही यह दु:शासन यहाँ सो रहा है। माधव! देखो, ध्रुतक्रीड़ा के समय पाये हुए कलेशों को स्मरण करके द्रौपदी से प्रेरित हुए भीमसेन ने मेरे इस पुत्र को गदा से माल डाला है। जनार्दन! इसने अपने भाई और कर्ण का प्रिय करने की इच्छा से सभा में जुएं से जीती गयी द्रौपदी के प्रति कहा था कि पांचालि। तू नकुल सहदेव तथा अर्जुन के साथ ही हमारी दासी हो गई; अतः शीघ्र ही हमारे घरों में प्रवेश कर। श्रीकृष्ण! उस समय मैं राजा दुर्योधन से बोली- बेटा। शकुनी मौत के फन्दे में फंसा हुआ है। तुम इसका साथ छोड़ दो। पुत्र! तुम अपने इस खोटी बुद्धि वाले मामा को कलह प्रिय समझो और शीघ्र ही इसका परित्याग करके पाण्डवों के साथ संधि कर लो। दुर्बुद्वे! तुम नहीं जानते कि भीमसेन कितने अमर्षशील हैं। तभी जलती लकड़ी से हाथी को मारने के समान तुम अपने तीखे वाग्बाणों से उन्हें पीड़ा दे रहे हो। इस प्रकार एकान्त में मैंने उन सब को डांटा था। श्रीकृष्ण! उन्हीं बागबाणों को याद करके क्रोधी भीमसेन ने मेरे पुत्रों पर उसी प्रकार क्रोधरूपी विष छोड़ा है, जैसे सर्प गाय वैल को डस कर उनमें अपने विष का संचार कर देता है। सिंह के मारे हुए विशाल हाथी के समान भीमसेन का मारा हुआ यह दुशासन दोनों विशाल हाथ फैलाये रणभूमि में पड़ा हुआ है। अत्यन्त अमर्ष में भरे हुए भीमसेन ने युद्धस्थल में क्रुद्व होकर जो दुशासन का रक्त पी लिया, यह बड़ा भयानक कर्म किया है।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 18 श्लोक 1-18
  2. महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 18 श्लोक 19-28

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