दुर्योधन व उसके पास रोती हुई पुत्रवधु को देखकर गांधारी का विलाप

महाभारत स्त्री पर्व में स्त्रीविलाप पर्व के अंतर्गत 17वें अध्याय में वैशम्पायन ने दुर्योधन तथा उसके पास रोती हुई पुत्रवधु को देखकर गांधारी का श्रीकृष्ण के सम्मुख विलाप करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

दुर्योधन व उसकी पत्नी को देखकर गांधारी का शोक करना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! दुर्योधन को मारा देखकर शोक से पीड़ित हुई गान्धारी वन में कटे हुए केले के वृक्ष की तरह सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ी। पुनः होश में आने पर अपने पुत्र को पुकार-पुकार कर वे विलाप करने लगीं। दुर्योधन को खून से लथपथ होकर सोया देख उसे हृदय से लगाकर गान्धारी दीन होकर रोने लगी। उनकी सारी इन्द्रियां व्याकुल हो उठी थीं। वे शोक से आतुर हो हा पुत्र! हा पुत्र कहकर विलाप करने लगीं। दुर्योधन के गले की विशाल हड्डी मांस में छिपी हुई थी। उसने गले में हार और निष्क पहने रखे थे। उन आभूषणों से विभूषित बेटे के वक्षःस्थल को आसूओं से सींचती हुई गान्धारी शोकागनी संतप्त हो रही थी। वे पास ही खड़े हुए श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहने लगीं- वृष्णिनन्दन! प्रभो! भाई-बन्धुओं का विनाश करने वाला जब यह भीषण संग्राम उपस्थित हुआ था उस समय इस नृपश्रेष्ठ दुर्योधन ने मुझसे हाथ जोड़कर कहा- माता जी! कुटम्बीजनों इस संग्राम में आप मुझे मेरी विजय के लिये आशीर्वाद दें। पुरुषसिंह श्रीकृष्ण! उसके ऐसा कहने पर मैं यह सब जानती थी कि मुझ पर बड़ा भारी संकट आने वाला है, तथापि मैंने उससे यही कहा- जहाँ धर्म है, वहीं विजय है। बेटा! शक्तिशाली पुत्र! यदि तुम युद्ध करते हुए धर्म से मोहित न होओगे तो निश्चय ही देवताओं के समान शस्त्रों द्वारा जीते हुए लोकों को प्राप्त कर लोगे। प्रभो! यह बात मैंने पहले ही कह दी थी; इसलिये मुझे इस दुर्योधन के लिये शोक नहीं हो रहा है। मैं तो इन दीन राजा धृतराष्ट्र के लिये शोक मग्न हो रही हूँ, जिनके सारे भाई-बन्धु मार डाले गये। माधव! अमर्षशील, योद्धाओं में श्रेष्ठ, अस्त्र विद्या के ज्ञाता, रणदुर्मद तथा वीर शय्या पर पर सोये हुए मेरे इस पुत्र को देखो तो सही। शत्रुओं को संताप देने वाला जो दुर्योधन मूर्धाभिशिक्‍त राजाओं के आगे-आगे चलता था वही आज यह धूल में लोट रहा है।

काल इस उलट-फेर को तो देखो। निश्चय ही वीर दुर्योधन उस उत्तम गति को प्राप्त हुआ है, जो सबके लिये सुलभ नहीं है; क्योंकि यह वीरसेवित शय्या पर सामने मुंह किये सो रहा है। पूर्वकाल में जिसके पास बैठकर सुन्दरी स्त्रियां उसके मनोरंजन करती थीं, वीर शय्या पर सोये हुए आज उसी वीर का ये अमंगलकारिणी गिदड़ियाँ मन बहलाव करती हैं। जिसके पास पहले राजा लोग बैठकर उसे आनन्द प्रदान करते थे, आज मरकर धरती पर पड़े हुए उसी वीर के पास गीध बैठे हुए हैं। पहले जिसके पास खड़ी होकर युवतियां सुन्दर पंखे झला करती थीं आज उसी को पक्षीगण अपनी पाखों से हवा करते हैं। यह महाबाहू सत्य पराक्रमी बलवान वीर दुर्योधन, भीमसेन द्वारा गिराया जाकर युद्धस्थल में सिंह के मारे हुए गजराज के समान सो रहा है। श्रीकृष्ण! भीमसेन की चोट, खाकर खून से लथपथ हो गदा लिये धरती पर सोये हुए दुर्योधन को अपनी आंख से देख लो। केशव! जिस महाबाहु वीर ने पहले ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओं को जुटा लिया था। वही अपनी अनिति के कारण युद्ध में मार डाला गया।[1] सिंह के मारे हुए दूसरे सिंह के समान भीमसेन के हाथों मारा गया यह महाबली महाधनुर्धर दुर्योधन सो रहा है। यह मूर्ख और अभागा बालक विदुर तथा अपने पिता का अपमान करके बड़े-बूढ़ों की अवहेलना के पाप से ही काल के गाल में चला गया है। यह सारी पृथ्वी तेरह वर्षों तक निष्कंटक भाव से जिसके अधिकार में रही है, वही मेरा पुत्र पृथ्वीपति दुर्योधन आज मारा जाकर पृथ्वी पर पड़ा है। वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! मैंने दुर्योधन द्वारा शासित हुई इस पृथ्वी को हाथी, घोड़े और गौओं से भरी पूरी देखा था; किन्तु वह राज्य चिरस्थायी न रह सका।

महाबाहु माधव! आज उसी पृथ्वी को मैं देखती हूँ कि वह दूसरे शासन में जाकर हाथी, घोड़े और गाय बैलों से हीन हो गयी है; फिर मैं किसके लिये जीवन धारण करूं। मेरे लिये पुत्र के वध से भी अधिक कष्ट देने वाली यह है कि ये स्त्रियां रणभूमि में मारे गये अपने शूरवीर पतियों के पास बैठी रो रही हैं। इनकी दयनीय दशा तो देखो। श्रीकृष्ण! सुवर्ण की वेदी के समान तेजस्विनी तथा सुन्दर कटी प्रदेश वाली उस लक्ष्मण की माता को देखो, जो दुर्योधन के शुभ अंक में स्थित हो केश खोले रो रही है। पहले जब राजा दुर्योधन जीवित था, तब निश्चय ही यह मनस्विनी बाला सुन्दर बाँहों वाले अपने वीर पति की दोनों भुजाओं का आश्रय लेकर इसी तरह उसके साथ सानन्द क्रीड़ा करती रही होगी। रणभूमि में वही मेरा पुत्र अपने पुत्र के साथ ही मार डाला गया है, इसे इस अवस्था में देखकर मेरे इस हृदय के सैकड़ों टुकड़े क्यों नहीं हो जाते। सुन्दर जांघों वाली मेरी सतीसाध्वी पुत्र-वधु कभी खून से भीगे हुए अपने पुत्र लक्ष्मण का मूंह सूंघती है तो पति दुर्योधन का शरीर अपने हाथ से पोंछती है। पता नहीं, यह मनस्विनी बहू पुत्र के लिये शोक करती है या पति के लिये? कुछ ऐसी ही अवस्था में वह जान पड़ती है। माधव! वह देखो, वह विशाल लोचना वधु पुत्र की ओर देखकर दोनों हाथों से सिर पीटती हुई अपने वीर पति कुरुराज की छाती पर गिर पड़ी है। कमल पुष्प के भीतरी भाग की सी मनोहर कांति वाली मेरी तपश्विनी पुत्र-वधु जो प्रफुल्ल कमल के समान सुशोभित हो रही है, कभी अपने पुत्र का मुंह पोंछती है तो कभी अपने पति का। श्रीकृष्ण! यदि वेद शास्त्र सत्य हैं तो मेरा पुत्र यह राजा दुर्योधन निश्चय ही अपने बाहुबल से प्राप्त हुए पुण्यमय लोकों में गया है।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 17 श्लोक 1-18
  2. महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 17 श्लोक 19-32

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