महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 17 श्लोक 19-32

सप्तदश (17) अध्याय: स्‍त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)

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महाभारत: स्त्रीपर्व: सप्तदष अध्याय: श्लोक 19-32 का हिन्दी अनुवाद

सिंह के मारे हुए दूसरे सिंह के समान भीमसेन के हाथों मारा गया यह महाबली महाधनुर्धर दुर्योधन सो रहा है। यह मूर्ख और अभागा बालक विदुर तथा अपने पिता का अपमान करके बड़े-बूढ़ों की अवहेलना के पाप से ही काल के गाल में चला गया है। यह सारी पृथ्वी तेरह वर्षों तक निष्कंटक भाव से जिसके अधिकार में रही है, वही मेरा पुत्र पृथ्वीपति दुर्योधन आज मारा जाकर पृथ्वी पर पड़ा है। वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! मैंने दुर्योधन द्वारा शासित हुई इस पृथ्वी को हाथी, घोड़े और गौओं से भरी पूरी देखा था; किन्तु वह राज्य चिरस्थायी न रह सका। महाबाहु माधव! आज उसी पृथ्वी को मैं देखती हूँ कि वह दूसरे शासन में जाकर हाथी, घोड़े और गाय बैलों से हीन हो गयी हैं; फिर मैं किसके लिये जीवन धारण करूं। मेरे लिये पुत्र के वध से भी अधिक कष्ट देने वाली यह है कि ये स्त्रियां रणभूमि में मारे गये अपने शूरवीर पतियों के पास बैठी रो रही हैं। इनकी दयनीय दशा तो देखो। श्रीकृष्ण! सुवर्ण की वेदी के समान तेजस्विनी तथा सुन्दर कटी प्रदेश वाली उस लक्ष्मण की माता को देखो, जो दुर्योधन के शुभ अंक में स्थित हो केश खोले रो रही हैं।

पहले जब राजा दुर्योधन जीवित था, तब निश्चय ही यह मनस्विनी बाला सुन्दर बाँहों वाले अपने वीर पति की दोनों भुजाओं का आश्रय लेकर इसी तरह उसके साथ सानन्द क्रीड़ा करती रही होगी। रणभूमि में वही मेरा पुत्र अपने पुत्र के साथ ही मार डाला गया है, इसे इस अवस्था में देखकर मेरे इस हृदय के सैकड़ों टुकड़े क्यों नहीं हो जाते। सुन्दर जांघों वाली मेरी सतीसाध्वी पुत्र-वधु कभी खून से भीगे हुए अपने पुत्र लक्ष्मण का मूंह सूंघती है तो पति दुर्योधन का शरीर अपने हाथ से पोंछती है। पता नहीं, यह मनस्विनी बहू पुत्र के लिये शोक करती है या पति के लिये? कुछ ऐसी ही अवस्था में वह जान पड़ती है। माधव! वह देखो, वह विशाल लोचना वधु पुत्र की ओर देखकर दोनों हाथों से सिर पीटती हुई अपने वीर पति कुरुराज की छाती पर गिर पड़ी है। कमल पुष्प के भीतरी भाग की सी मनोहर कांति वाली मेरी तपश्विनी पुत्र-वधु जो प्रफुल्ल कमल के समान सुशोभित हो रही है, कभी अपने पुत्र का मुंह पोंछती है तो कभी अपने पति का। श्रीकृष्ण! यदि वेद शास्त्र सत्य हैं तो मेरा पुत्र यह राजा दुर्योधन निश्चय ही अपने बाहुबल से प्राप्त हुए पुण्यमय लोकों में गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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