यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 99

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वितीय अध्याय

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिव्र्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।52।।

जिस काल में तेरी (प्रत्येक साधक की) बुद्धि मोहरूपी दलदल को पूर्णतः पार कर लेगी, लेशमात्र भी मोह न रह जाय- न पुत्र में, न धन में, न प्रतिष्ठा में-इन सबसे लगाव टूट जायेगा, उस समय जो सुनने योग्य है उसे तू सुन सकेगा और सुने हुए के अनुसार वैराग्य को प्राप्त हो सकेगा अर्थात् उसे आचरण में ढाल सकेगा। अभी तो जो सुनने लायक है, उसे न तो तू सुन पाया है और आचरण का तो प्रश्न ही नहीं खड़ा होता। इसी योग्यता पर पुनः प्रकाश डालते हैं-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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