विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दद्वितीय अध्यायकर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः। बुद्धियोग से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होनेवाले फल को त्यागकर जन्म और मृत्यु के बन्धन से छूट जाते हैं। वे निर्दोष अमृतमय परमपद को प्राप्त होतेे हैं। यहाँ तीन बुद्धियों का चित्रण है। (श्लोक 39) सांख्य बुद्धि में दो फल हैं-स्वर्ग और श्रेय। (श्लोक 51) कर्मयोग में प्रवृत्त बुद्धि का एक ही फल है जन्म-मृत्यु से मुक्ति, निर्मल अविनाशी पद की प्राप्ति। बस दो ही योगक्रिया हैं। इसके अतिरिक्त बुद्धि अविवेकजन्य है, अनन्त शाखाओंवाली है, जिसका फल कर्मभोग के लिये बारम्बार जन्म-मृत्यु है। अर्जुन की दृष्टि त्रिलोकी के साम्राज्य तथा देवताओं के स्वामीपन तक ही सीमित थी। इतने तक के लिये भी वह युद्ध में प्रवृत्त नहीं हो रहा था। यहाँ श्रीकृष्ण उसे नवीन तथ्य उद्घाटित करते हैं कि आसक्तिरहित कर्म द्वारा अनामय पद प्राप्त होता है। निष्काम कर्मयोग परमपद को दिलाता है, जहाँ मृत्यु का प्रवेश नहीं है। इस कर्म में प्रवृत्ति कब होगी?
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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