यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 98

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वितीय अध्याय

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
न्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।51।।

बुद्धियोग से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होनेवाले फल को त्यागकर जन्म और मृत्यु के बन्धन से छूट जाते हैं। वे निर्दोष अमृतमय परमपद को प्राप्त होतेे हैं।

यहाँ तीन बुद्धियों का चित्रण है। (श्लोक 39) सांख्य बुद्धि में दो फल हैं-स्वर्ग और श्रेय। (श्लोक 51) कर्मयोग में प्रवृत्त बुद्धि का एक ही फल है जन्म-मृत्यु से मुक्ति, निर्मल अविनाशी पद की प्राप्ति। बस दो ही योगक्रिया हैं। इसके अतिरिक्त बुद्धि अविवेकजन्य है, अनन्त शाखाओंवाली है, जिसका फल कर्मभोग के लिये बारम्बार जन्म-मृत्यु है।

अर्जुन की दृष्टि त्रिलोकी के साम्राज्य तथा देवताओं के स्वामीपन तक ही सीमित थी। इतने तक के लिये भी वह युद्ध में प्रवृत्त नहीं हो रहा था। यहाँ श्रीकृष्ण उसे नवीन तथ्य उद्घाटित करते हैं कि आसक्तिरहित कर्म द्वारा अनामय पद प्राप्त होता है। निष्काम कर्मयोग परमपद को दिलाता है, जहाँ मृत्यु का प्रवेश नहीं है। इस कर्म में प्रवृत्ति कब होगी?


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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