विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दद्वितीय अध्यायदूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनन्जय। धनंजय! ‘अवरं कर्म’- निकृष्ट कर्म, वासनावाले कर्म बुद्धियोग से अत्यन्त दूर हैं। फल की कामनावाले कृपण हैं। वे आत्मा के साथ उदारता नहीं बरतते, अतः समत्व बुद्धियोग का आश्रय ग्रहण कर। जैसी कामना है वैसा मिल भी जाये तो उसे भोगने के लिये शरीर धारण करना पड़ेगा। आवागमन बना है तो कल्याण कैसा? साधक को तो मोक्ष की भी वासना नहीं रखनी चाहिये; क्योंकि वासनाओं से मुक्त होना ही तो मोक्ष है। फल की प्राप्ति का चिन्तन करने से साधक का समय व्यर्थ नष्ट हो जाता है और फल प्राप्त होने पर वह उसी फल में उलझ जाता है। उसकी साधना समाप्त हो जाती है। आगे वह भजन क्यों करे? वहाँ से वह भटक जाता है। इसलिये समत्व बुद्धि से योग का आचरण करें। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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