यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 94

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वितीय अध्याय

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनन्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।49।।

धनंजय! ‘अवरं कर्म’- निकृष्ट कर्म, वासनावाले कर्म बुद्धियोग से अत्यन्त दूर हैं। फल की कामनावाले कृपण हैं। वे आत्मा के साथ उदारता नहीं बरतते, अतः समत्व बुद्धियोग का आश्रय ग्रहण कर। जैसी कामना है वैसा मिल भी जाये तो उसे भोगने के लिये शरीर धारण करना पड़ेगा। आवागमन बना है तो कल्याण कैसा? साधक को तो मोक्ष की भी वासना नहीं रखनी चाहिये; क्योंकि वासनाओं से मुक्त होना ही तो मोक्ष है। फल की प्राप्ति का चिन्तन करने से साधक का समय व्यर्थ नष्ट हो जाता है और फल प्राप्त होने पर वह उसी फल में उलझ जाता है। उसकी साधना समाप्त हो जाती है। आगे वह भजन क्यों करे? वहाँ से वह भटक जाता है। इसलिये समत्व बुद्धि से योग का आचरण करें।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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