यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दउपशमसन्त कहीं-न-कहीं तो जन्म लेता ही है। पूरब अथवा पश्चिम में, श्याम अथवा श्वेत परिवार में, पूर्वप्रचलित किन्हीं धर्मावलम्बियों के बीच अथवा अबोध कबीलों में, सामान्य जीवन जीनेवाले गरीब अथवा अमीरों में जन्म लेकर भी सन्त उनकी परम्परा वाला नहीं होता। वह तो अपने लक्ष्य परमात्मा को पकड़कर स्वरूप की ओर अग्रसर हो जाता है, वही हो जाता है। उसके उपदेशों में जाति-पाँति, वर्गभेद और अमीर-गरीब की दीवारें नहीं रहती हैं। यहाँ तक कि उसकी दृष्टि में नर-मादा का भेद भी नहीं रह जाता (देखें गीता, 15/16-द्वाविमौ पुरुषौ लोके)। महापुरुषों के पश्चात् उनके अनुयायी अपना सम्प्रदाय बनाकर संकुचित हो जाते हैं। किसी महापुरुष के पीछे चलनेवाले यहूदी हो जाते हैं, तो किसी के अनुयायी ईसाई, मुसलमान, सनातनी इत्यादि हो जाते हैं; किन्तु इन दीवारों से सन्त का सम्बन्ध कदापि नहीं होता। सन्त न तो कोई साम्प्रदायिक है औन न कोई जाति। सन्त सन्त हैं, उन्हें किसी सामाजिक संगठन में न समेटें। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज