यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 862

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

उपशम

सन्त कहीं-न-कहीं तो जन्म लेता ही है। पूरब अथवा पश्चिम में, श्याम अथवा श्वेत परिवार में, पूर्वप्रचलित किन्हीं धर्मावलम्बियों के बीच अथवा अबोध कबीलों में, सामान्य जीवन जीनेवाले गरीब अथवा अमीरों में जन्म लेकर भी सन्त उनकी परम्परा वाला नहीं होता। वह तो अपने लक्ष्य परमात्मा को पकड़कर स्वरूप की ओर अग्रसर हो जाता है, वही हो जाता है। उसके उपदेशों में जाति-पाँति, वर्गभेद और अमीर-गरीब की दीवारें नहीं रहती हैं। यहाँ तक कि उसकी दृष्टि में नर-मादा का भेद भी नहीं रह जाता (देखें गीता, 15/16-द्वाविमौ पुरुषौ लोके)।

महापुरुषों के पश्चात् उनके अनुयायी अपना सम्प्रदाय बनाकर संकुचित हो जाते हैं। किसी महापुरुष के पीछे चलनेवाले यहूदी हो जाते हैं, तो किसी के अनुयायी ईसाई, मुसलमान, सनातनी इत्यादि हो जाते हैं; किन्तु इन दीवारों से सन्त का सम्बन्ध कदापि नहीं होता। सन्त न तो कोई साम्प्रदायिक है औन न कोई जाति। सन्त सन्त हैं, उन्हें किसी सामाजिक संगठन में न समेटें।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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