यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 863

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

उपशम

अतः संसार भर के सन्तों की, चाहे किसी कबीले में उनका जन्म हुआ है, चाहे किसी मजहब सम्प्रदाय वाले उनका पूजन अधिक करते हों, किसी साम्प्रदायिक प्रभाव में आकर ऐसे सन्तों की आलोचना नहीं करनी चाहिये; क्योंकि वे निरपेक्ष हैं। संसार के किसी भी स्थान में उत्पन्न सन्त निन्दा के योग्य नहीं होता। यदि कोई ऐसा करता है तो वह अपने अन्दर स्थित अन्तर्यामी परमात्मा को दुर्बल करता है, अपने परमात्मा से दूरी पैदा कर लेता है, स्वयं अपनी क्षति करता है। संसार में जन्म लेनेवालों में यदि आपका कोई सच्चा हितैषी है तो सन्त ही। अतः उनके प्रति सहृदय रहना संसार भर के लोगों का मूल कर्तव्य है। इससे वंचित होना अपने को धोखा देना है।

वेद- गीता में वेद का वर्णन बहुत आया है; किन्तु कुल मिलाकर वेद मार्ग-निर्देशक चिह्न मात्र हैं। मंजिल तक पहुँच जाने पर उस व्यक्ति के लिये उनका उपयोग समाप्त हो जाता है। अध्याय 2/45 में श्रीकृष्ण ने कहा-अर्जुन! वेद तीनों गुणों तक ही प्रकाश कर पाते हैं, तू वेदों के कार्यक्षेत्र से ऊपर उठ।

अध्याय 2/46 में कहा-सब ओर से परिपूर्ण स्वच्छ जलाशय प्राप्त होने पर छोटे जलाशय से मनुष्य का जितना प्रयोजन रह जाता है, अच्छी प्रकार ब्रह्म के ज्ञाता महापुरुष अर्थात् ब्राह्मण का वेदों से उतना ही प्रयोजन रह जाता है; किन्तु दूसरों के लिये तो उनका उपयोग है ही।

अध्याय 8/28 में कहा- अर्जुन! मुझे तत्व से भलीभाँति जान लेने पर योगी वेद, यज्ञ, तप, दान इत्यादि के पुण्यफलों को पार कर सनातन पद को प्राप्त हो जाता है। अर्थात् जब तक वेद जीवित हैं, यज्ञ करना शेष है, तब तक सनातन पद की प्राप्ति नहीं है।

अध्याय 15/1 में बताया-ऊपर परमात्मा ही जिसका मूल है, नीचे कीट-पतंगपर्यन्त प्रकृति जिसकी शाखा-प्रशाखा है, संसार ऐसा पीपल का एक अविनाशी वृक्ष है। जो इसे मूलसहित जानता है, वह वेद का ज्ञाता है। इस जानकारी का स्त्रोत महापुरुष हैं, उनके द्वारा निर्दिष्ट भजन है। पुस्तक या पाठशाला भी उन्हीं की ओर प्रेरित करते हैं।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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