यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 861

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

उपशम

सन्त सब एक- गीता, अध्याय 4/1 में भगवान् श्रीकृष्ण ने बताया- इस अविनाशी योग को कल्प के आदि में मैनें सूर्य के प्रति कहा था। किन्तु श्रीकृष्ण के पूर्वकालीन इतिहास अथवा अन्य किसी भी शास्त्र में कृष्ण-नाम का उल्लेख नहीं मिलता।

वास्तव में श्रीकृष्ण एक पूर्ण योगेश्वर हैं। वे एक अव्यक्त और अविनाशी भाव की स्थिति के हैं। जब कभी परमात्मा से मिलानेवाली क्रिया अर्थात् योग का सूत्रपात किया गया तो इसी स्थितिवाले किसी महापुरुष ने किया, चाहे वह राम हों या ऋषि जरथुस्त्र ही क्यों न रहे हों। परवर्तीकाल में यही उपदेश ईसा, मुहम्मद, गुरुनानक इत्यादि जिस किसी के द्वारा निकला, कहा श्रीकृष्ण ने ही।

अतः सभी महापुरुष एक ही हैं। सब-के-सब एक ही बिन्दु का स्पर्श कर एक ही स्वरूप को पाते हैं। यह पद एक इकाई है। अनेक पुरुष इस पथ पर चलेंगे; लेकिन जब पायेंगे, एक ही पद को पायेंगे। ऐसी अवस्था को प्राप्त सन्त का शरीर एक मकान मात्र रह जाता है। वे शुद्ध आत्मस्वरूप हैं। ऐसी स्थितिवालों ने कभी कुछ कहा, तो एक योगेश्वर ने ही कहा।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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