यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 840

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

उपशम

योगेश्वर श्रीकृष्ण के इतना बल देने पर भी आप उस नियत कर्म को न करके, श्रीकृष्ण का कहना न मानकर उल्टी-सीधी कल्पना करते हैं कि जो कुछ भी संसार में किया जाता है, कर्म है। कुछ भी त्यागने की जरूरत नहीं है केवल फल की कामना न करो, हो गया निष्काम कर्मयोग। कर्तव्य भावना से करो-हो गया कर्तव्य योग। कुछ भी करो, नारायण को समर्पण कर दो- हो गया समर्पण योग। इसी प्रकार यज्ञ का नाम आते ही हम भूतयज्ञ, पितृयज्ञ, पंचयज्ञ, विष्णु के निमित्त किया जानेवाला यज्ञ गढ़ लेते हैं और उसकी क्रिया में स्वाहा बोलकर खड़े हो जाते हैं। यदि श्रीकृष्ण ने स्पष्ट न कहा हो तो हम कुछ भी करें। यदि बताया है तो जितना कहा है उतना ही मान लें। किन्तु हम मान नहीं पाते। विरासत में अनेक रीति-रिवास, पूजा-पद्धतियाँ हमारे मस्तिष्क को जकड़े हुई हैं। बाह्य वस्तुओं को कदाचित् हम बेचकर भाग भी सकते हैं, किन्तु ये पूर्वाग्रह मस्तिष्क में बैठकर हमारे साथ चलते हैं। श्रीकृष्ण के शब्दों को भी हम इन्हीं के अनुरूप ढालकर ग्रहण करते हैं। गीता तो अत्यन्त बोधगम्य सरल संस्कृत में है। आप अन्वयार्थ भी लें तो कभी सन्देह नहीं होगा। यही प्रयास प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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