यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दउपशमयुद्ध-यदि यज्ञ और कर्म, दो प्रश्न ही यथार्थ समझ ले तो युद्ध, वर्णव्यवस्था, वर्णसंकर, ज्ञानयोग, कर्मयोग अथवा संक्षेप में सम्पूर्ण गीता ही आपकी समझ में आ जाय। अर्जुन लड़ना नहीं चाहता था। वह धनुष फेंककर रथ के पिछले भाग में बैठ गया; किन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण ने एकमात्र कर्म की शिक्षा देकर कर्म को केवल दृढ़ाया ही नहीं बल्कि अर्जुन को उस कर्म पर चला भी दिया। युद्ध हुआ, इसमें सन्देह नहीं। गीता के पन्द्रह-बीस श्लोक ऐसे हैं जिनमें बार-बार कहा गया, अर्जुन! तू यूद्ध कर; किन्तु एक भी श्लोक ऐसा नहीं है, जो बाहरी मारकाट का समर्थन करता हो। (द्रष्टव्य है-अध्याय 2, 3, 11, 15 और 18) क्योंकि जिस कर्म पर बल दिया गया वह नियत कर्म, जो एकान्त-देश के सेवन से, चित्त को सब ओर से समेटकर ध्यान करने से होता है। जब कर्म का यही स्वरूप है, चित्त एकान्त और ध्यान में लगा है तो युद्ध कैसा? यदि गीतोक्त कल्याण युद्ध करनेवाले के लिये ही है तो आप गीता का पिण्ड छोड़ दें। आपके समक्ष अर्जुन जैसी युद्ध की कोई परिस्थिति तो है नहीं। वस्तुतः तब भी वह परिस्थिति विद्यमान थी और आज भी ज्यों-की-त्यों है। जब चित्त को सब ओर से समेटकर आप हृदय-देश में ध्यान करने लगेंगे तो काम, क्रोध, राग, द्वेषादि विकार आपके चित्त को टिकने नहीं देंगे। उन विकारों से संघर्ष करना, उनका अन्त करना ही युद्ध है। विश्व में युद्ध होते ही रहते हैं; किन्तु उनसे कल्याण नहीं अपितु विनाश होता है। उसे शान्ति कह लें अथवा परिस्थिति, अन्य कोई शान्ति इस दुनिया में नहीं मिलती। शान्ति तभी मिलती है, जब यह आत्मा अपने शाश्वत को पा ले। यही एकमात्र शान्ति है, जिसके पीछे अशान्ति नहीं है। किन्तु यह शान्ति साधनगम्य है, उसी के लिये नियत कर्म का विधान है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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