यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 819

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

अष्टदश अध्याय

इस पर संजय बोला- (ग्यारहवें अध्याय में विराट् रूप का दर्शन करा लेने पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! अनन्य भक्ति के द्वारा मैं इस प्रकार देखने को (जैसा तूने देखा है), तत्व से जानने तथा प्रवेश करने को सुलभ हूँ (11/54)। इस प्रकार दर्शन करनेवाले साक्षात् मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं और यहाँ अभी अर्जुन से पूछते है-क्या तुम्हारा मोह नष्ट हुआ? अर्जुन ने कहा-मेरा मोह नष्ट हो गया। मैं अपनी स्मृति को प्राप्त हो गया हूँ। आप जो कहते हैं, वही करूँगा। दर्शन के साथ तो अर्जुन को मुक्त हो जाना चाहिये था। वस्तुतः अर्जुन को तो जो होना था, हो गया; किन्तु शास्त्र भविष्य में आनेवाली पीढ़ी के लिये होता है। उसका उपयोग आप सबके लिये ही है।)

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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