यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 815

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

अष्टदश अध्याय

कचिचदेतच्छुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कचिचदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनंजय।।72।।

हे पार्थ! क्या मेरा यह वचन तूने एकाग्रचित्त होकर सुना? क्या तेरा अज्ञान से उत्पन्न मोह नष्ट हुआ? इस पर अर्जुन बोला-

अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।73।।

अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है। मुझे स्मृति प्राप्त हुई है। (जो रहस्यमय ज्ञान मनु ने स्मृति-परम्परा से चलाया, उसी को अर्जुन ने प्राप्त कर लिया।) अब मैं संशयरहित हुआ स्थित हूँ और आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। जबकि सैन्य निरीक्षण के समय दोनों ही सेनाओं में स्वजनों को देख अर्जुन व्याकुल हो गया था। उसने निवेदन किया- गोविन्द! स्वजनों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे? ऐसे युद्ध से शाश्वत कुलधर्म नष्ट हो जायेगा, पिण्डोदक-क्रिया लुप्त हो जायेगी, वर्णसंकर उत्पन्न होगा। हमलोग समझदार होकर भी पाप करने को उद्यत हुए हैं। क्यों न इससे बचने के लिये उपाय करें? शस्त्रधारी ये कौरव मुझ शस्त्ररहित को रण में मार डालें, वह मरना भी श्रेयस्कर है। गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा-कहता हुआ वह रथ के पिछले भाग में बैठ गया था।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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