यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 814

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

अष्टदश अध्याय

श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्।।71।।

जो पुरुष श्रद्धा से युक्त और ईष्र्यारहित होकर केवल सुनेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करनेवालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा। अर्थात् करते हुए भी पार न लगे तो सुना भर करें, उत्तम लोक तब भी है; क्योंकि वह चित्त में उन उपदेशों को ग्रहण तो करता है। यहाँ सड़सठ से इकहत्तर तक पाँच श्लोकों में भगवान् श्रीकृष्ण ने यह बताया कि गीता का उपदेश अनधिकारियों को नहीं कहना चाहिये; किन्तु जो श्रद्धावान् है उससे अवश्य कहना चाहिये। जो सुनेगा, वह भक्त मुझे प्राप्त होगा; क्योंकि अतिगोपनीय कथा को सुनकर पुरुष चलने लगता है। जो भक्तों में कहेगा, उससे अधिक प्रिय करनेवाला मेरा कोई नहीं है। जो अध्ययन करेगा, उसके द्वारा में ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा। यज्ञ का परिणाम ही ज्ञान है। जो गीता के अनुसार कर्म करने में असमर्थ है; किन्तु श्रद्धा से मात्र सुनेगा, वह भी पुण्यलोकों को प्राप्त होगा। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण ने इसके कहने, सुनने तथा अध्ययन का फल बताया। प्रश्न पूरा हुआ। अब अन्त में वे अर्जुन से पूछते हैं कि कुछ समझ में आया?


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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