यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 810

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

अष्टदश अध्याय

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।66।।

सम्पूर्ण धर्मों को त्यागकर (अर्थात् मैं ब्राह्मण श्रेणी का कर्ता हूँ या शूद्र श्रेणी का, क्षत्रिय हूँ अथवा वैश्य-इसे विचार को त्यागकर) केवल एक मेरी अनन्य शरण को प्राप्त हो। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा। तू शोक मत कर।

इन सब ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादि वर्णों का विचार न कर (कि इस कर्मपथ में किस स्तर का हूँ) जो अनन्य भाव से शरण हो जाता है, सिवाय इष्ट के अन्य किसी को नहीं देखता, उसका क्रमशः वर्ण-परिवर्तन, उत्थान तथा पूर्ण पापों से निवृत्ति (मोक्ष) की जिम्मेदारी वह इष्ट सद्गुरु स्वयं अपने हाथों में ले लेते हैं।

प्रत्येक महापुरुष ने यही कहा। शास्त्र जब लिखने में आता है तो लगता है कि यह सबके लिये है; किन्तु है वस्तुतः श्रद्धावान् के लिये ही। अर्जुन अधिकारी था, अतः उसे बल देकर कहा। अब योगेश्वर स्वयं निर्णय देते हैं कि इसके अधिकारी कौन हैं?-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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