विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दअष्टदश अध्यायसर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। सम्पूर्ण धर्मों को त्यागकर (अर्थात् मैं ब्राह्मण श्रेणी का कर्ता हूँ या शूद्र श्रेणी का, क्षत्रिय हूँ अथवा वैश्य-इसे विचार को त्यागकर) केवल एक मेरी अनन्य शरण को प्राप्त हो। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा। तू शोक मत कर। इन सब ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादि वर्णों का विचार न कर (कि इस कर्मपथ में किस स्तर का हूँ) जो अनन्य भाव से शरण हो जाता है, सिवाय इष्ट के अन्य किसी को नहीं देखता, उसका क्रमशः वर्ण-परिवर्तन, उत्थान तथा पूर्ण पापों से निवृत्ति (मोक्ष) की जिम्मेदारी वह इष्ट सद्गुरु स्वयं अपने हाथों में ले लेते हैं। प्रत्येक महापुरुष ने यही कहा। शास्त्र जब लिखने में आता है तो लगता है कि यह सबके लिये है; किन्तु है वस्तुतः श्रद्धावान् के लिये ही। अर्जुन अधिकारी था, अतः उसे बल देकर कहा। अब योगेश्वर स्वयं निर्णय देते हैं कि इसके अधिकारी कौन हैं?- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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