यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 803

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

अष्टदश अध्याय

मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।58।।

इस प्रकार मुझमें निरन्तर चित्त को लगाने वाला होकर तू मेरी कृपा से मन और इन्द्रियों के सम्पूर्ण दुर्गों को अनायास ही तर जायेगा। ‘इन्द्रीं द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना। आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देहिं कपाट उघारी।।’[1]- ये ही दुर्जय दुर्ग हैं। मेरी कृपा से तू इन बाधाओं का अतिक्रमण कर जायेगा; किन्तु यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को नहीं सुनेगा तो विनष्ट हो जायेगा, परमार्थ से च्युत हो जायेगा। इस बिन्दु को योगेश्वर ने कई बार दृढ़ाया है। देखें- 16/18-19, 17/5-6। 16/23 में वे कहते हैं-इस शास्त्रविधि को त्यागकर अन्य-अन्य विधियों से जो भजते हैं उनके जीवन में न सुख है, न शान्ति है, न सिद्धि है और न परमगति ही है। वह सबसे भ्रष्ट हो जाता है। यहाँ कहते हैं-यदि अहंकारवश तू मेरी बात नहीं सुनेगा तो विनष्ट हो जायेगा। अतः लोक-समृद्धि और परमश्रेय की प्राप्ति के लिये सम्पूर्ण साधन-क्रम का आदिशास्त्र योगेश्वर श्रीकृष्णोक्त यही ‘गीता’ है। पुनः इसी पर बल देते हैं-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. रामचरितमानस, 7/117/11-12

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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