विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दअष्टदश अध्यायमच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि। इस प्रकार मुझमें निरन्तर चित्त को लगाने वाला होकर तू मेरी कृपा से मन और इन्द्रियों के सम्पूर्ण दुर्गों को अनायास ही तर जायेगा। ‘इन्द्रीं द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना। आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देहिं कपाट उघारी।।’[1]- ये ही दुर्जय दुर्ग हैं। मेरी कृपा से तू इन बाधाओं का अतिक्रमण कर जायेगा; किन्तु यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को नहीं सुनेगा तो विनष्ट हो जायेगा, परमार्थ से च्युत हो जायेगा। इस बिन्दु को योगेश्वर ने कई बार दृढ़ाया है। देखें- 16/18-19, 17/5-6। 16/23 में वे कहते हैं-इस शास्त्रविधि को त्यागकर अन्य-अन्य विधियों से जो भजते हैं उनके जीवन में न सुख है, न शान्ति है, न सिद्धि है और न परमगति ही है। वह सबसे भ्रष्ट हो जाता है। यहाँ कहते हैं-यदि अहंकारवश तू मेरी बात नहीं सुनेगा तो विनष्ट हो जायेगा। अतः लोक-समृद्धि और परमश्रेय की प्राप्ति के लिये सम्पूर्ण साधन-क्रम का आदिशास्त्र योगेश्वर श्रीकृष्णोक्त यही ‘गीता’ है। पुनः इसी पर बल देते हैं- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रामचरितमानस, 7/117/11-12
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