विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दअष्टदश अध्यायअतः अर्जुन! सम्पूर्ण कर्मों को (जितना कुछ तुझसे बन पड़ता है) मन से मुझे अर्पित करके, अपने भरोसे नहीं बल्कि मुझे समर्पण करके मेरे परायण हुआ बुद्धियोग अर्थात् योग की बुद्धि का अवलम्बन करके निरन्तर मुझमें चित्त लगा। योग एक ही है, जो सर्वथा दुःखों का अन्त करनेवाला और परमतत्व परमात्मा में प्रवेश दिलानेवाला है। उसकी क्रिया भी एक ही है- यज्ञ की प्रक्रिया, जो मन तथा इन्द्रियों के संयम, श्वास-प्रश्वास तथा ध्यान इत्यादि पर निर्भर है। जिसका परिणाम भी एक ही है-‘यान्ति ब्रह्म सनातनम्।’ इसी पर आगे कहते हैं- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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