विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दअष्टदश अध्यायअहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध, मद, मोह इत्यादि प्रकृति में गिरानेवाले विकार जब सर्वथा शान्त हो जाते हैं और विवेक, वैराग्य, शम, दम, एकान्त-सेवन, ध्यान इत्यादि ब्रह्म में प्रवेश दिलानेवाली योग्यताएँ जब पूर्णतया परिपक्व हो जाती हैं, उस समय वह ब्रह्म को जानने योग्य होता है। उस योग्यता का नाम ही पराभक्ति है। इसी योग्यता द्वारा वह तत्व को जानता है। तत्व है क्या? मुझे जानता है (भगवान जो हैं, जिन विभूतियों से युक्त है उसे जानता है) और मुझे जानकर तत्क्षण मुझमें ही स्थित हो जाता है। अर्थात् ब्रह्म, तत्व, ईश्वर, परमात्मा और आत्मा एक दूसरे के पर्याय हैं। एक की जानकारी के साथ ही इन सबकी जानकारी हो जाती है। यही परमसिद्धि, परमगति, परमधाम भी है। अतः गीता का दृढ़ निश्चय है कि सन्यास और निष्काम कर्मयोग दोनों ही परिस्थितियों में परम नैष्कम्र्य-सिद्धि को पाने के लिये नियत कर्म (चिन्तन) अनिवार्य है। अब तक तो सन्यासी के लिये भजन-चिन्तन पर बल दिया और अब समर्पण कहकर उसी वार्ता को निष्काम कर्मयोगी के लिये भी कहते हैं-
|
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज