यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 800

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

अष्टदश अध्याय

अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध, मद, मोह इत्यादि प्रकृति में गिरानेवाले विकार जब सर्वथा शान्त हो जाते हैं और विवेक, वैराग्य, शम, दम, एकान्त-सेवन, ध्यान इत्यादि ब्रह्म में प्रवेश दिलानेवाली योग्यताएँ जब पूर्णतया परिपक्व हो जाती हैं, उस समय वह ब्रह्म को जानने योग्य होता है। उस योग्यता का नाम ही पराभक्ति है। इसी योग्यता द्वारा वह तत्व को जानता है। तत्व है क्या? मुझे जानता है (भगवान जो हैं, जिन विभूतियों से युक्त है उसे जानता है) और मुझे जानकर तत्क्षण मुझमें ही स्थित हो जाता है। अर्थात् ब्रह्म, तत्व, ईश्वर, परमात्मा और आत्मा एक दूसरे के पर्याय हैं। एक की जानकारी के साथ ही इन सबकी जानकारी हो जाती है। यही परमसिद्धि, परमगति, परमधाम भी है।

अतः गीता का दृढ़ निश्चय है कि सन्यास और निष्काम कर्मयोग दोनों ही परिस्थितियों में परम नैष्कम्र्य-सिद्धि को पाने के लिये नियत कर्म (चिन्तन) अनिवार्य है।

अब तक तो सन्यासी के लिये भजन-चिन्तन पर बल दिया और अब समर्पण कहकर उसी वार्ता को निष्काम कर्मयोगी के लिये भी कहते हैं-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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