यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 799

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

अष्टदश अध्याय

दूसरे अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा-आत्मा ही सत्य है, सनातन है, अव्यक्त है और अमृतस्वरूप है; किन्तु इन विभूतियों से युक्त आत्मा को केवल तत्वदर्शियों ने देखा। अब वहाँ प्रश्न स्वाभाविक है कि वस्तुतः तत्वदर्शिता है क्या? बहुत से लोग पाँच तत्व, पचीस तत्व की बौद्धिक गणना करने लगते हैं; किन्तु इस पर श्रीकृष्ण ने यहाँ अठारहवें अध्याय में निर्णय दिया कि परमतत्व है परमात्मा, जो उसे जानता है वही तत्वदर्शी है। अब यदि आपको तत्व की चाह है, परमात्मतत्व की चाह है तो भजन-चिन्तन आवश्यक है।

यहाँ श्लोक उनचास से पचपन तक योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया कि सन्यास मार्ग में भी कर्म करना है। उन्होंने कहा, ‘सन्न्यासेन’- सन्यास के द्वारा (अर्थात् ज्ञानयोग के द्वारा) कर्म करते-करते इच्छारहित, असक्तिरहित तथा जीते हुए शुद्ध अन्तःकरणवाला पुरुष जिस प्रकार नैष्कम्र्य की परमसिद्धि को प्राप्त होता है, उसे संक्षेप में कहूँगा।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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