यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 797

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

अष्टदश अध्याय

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।53।।

अहंकार, बल, घमण्ड, काम, क्रोध, बाह्य वस्तुओं और आन्तरिक चिन्तनों का त्याग कर, ममतारहित और शान्त अन्तःकरण हुआ पुरुष परब्रह्म के साथ एकीभाव होने के लिये योग्य होता है। आगे देखें-

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।54।।

ब्रह्म के साथ एकीभाव होने की योग्यता वाला वह प्रसन्नचित्त पुरुष न तो किसी वस्तु के लिये शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। सब भूतों में समभाव हुआ वह भक्ति की पराकाष्ठा पर है। भक्ति अपना परिणाम देने की स्थिति में है, जहाँ ब्रह्म में प्रवेश मिलता है। अब-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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