विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दद्वितीय अध्यायसंजय उवाच संजय ने कहा- करुणा से व्याप्त, अश्रुपूर्ण व्याकुल नेत्रों वाले उस अर्जुन के प्रति ‘मधुसूदन’-मद का विनाश करने वाले भगवान ने यह वचन कहा- श्रीभगवानुवाच अर्जुन! इस विषम स्थल में तुझे यह अज्ञान कहाँ से हो गया? विषम स्थल अर्थात् जिसकी समता का सृष्टि में कोई स्थल है ही नहीं, पारलौकिक है लक्ष्य जिसका, ऐसे निर्विवाद स्थल पर तुझे अज्ञान कहाँ से हुआ? अज्ञान क्यों, अर्जुन तो सनातन-धर्म की रक्षा के लिये कटिबद्ध है। क्या सनातन-धर्म की रक्षा के लिये प्राण-पण से तत्पर होना अज्ञान है? श्रीकृष्ण कहते हैं- हाँ, यह अज्ञान है। न तो सम्भावित पुरुषों द्वारा इसका आचरण किया गया है, न यह स्वर्ग ही देने वाला है और न यह कीर्ति को ही करनेवाला है। सन्मार्ग पर जो दृढ़तापूर्वक आरूढ़ है, उसे आर्य कहते हैं। गीता आर्यसंहिता है। परिवार के लिये मरना-मिटना यदि अज्ञान न होता तो महापुरुष उस पर अवश्य चले होते। यदि कुलधर्म ही सत्य होता तो स्वर्ग और कल्याण की निःश्रेणी अवश्य बनती। यह कीर्तिदायक भी नहीं है। मीरा भजन करने लगी, तो ‘लोग कहें मीरा भई बावरी, सास कहे कुलनाशी रे।’ जिस परिवार, कुल और मर्यादा के लिये मीरा की सास बिलख रही थी, आज उस कुलवन्ती सास को कोई नहीं जानता, मीरा को विश्व जानता है। ठीक इसी प्रकार परिवार के लिये जो परेशान हैं, उनकी भी कीर्ति कब तक रहेगी? जिसमें कीर्ति नहीं, कल्याण नहीं, श्रेष्ठ पुरुषों ने भूलकर भी जिसका आचरण किया तो सिद्ध है कि वह अज्ञान है। अतः-
|
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज