यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 39

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वितीय अध्याय

संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टम श्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधूसूदनः।।1।।

संजय ने कहा- करुणा से व्याप्त, अश्रुपूर्ण व्याकुल नेत्रों वाले उस अर्जुन के प्रति ‘मधुसूदन’-मद का विनाश करने वाले भगवान ने यह वचन कहा-

श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वग्र्यमकीर्तिकरमर्जुन।।2।।

अर्जुन! इस विषम स्थल में तुझे यह अज्ञान कहाँ से हो गया? विषम स्थल अर्थात् जिसकी समता का सृष्टि में कोई स्थल है ही नहीं, पारलौकिक है लक्ष्य जिसका, ऐसे निर्विवाद स्थल पर तुझे अज्ञान कहाँ से हुआ? अज्ञान क्यों, अर्जुन तो सनातन-धर्म की रक्षा के लिये कटिबद्ध है। क्या सनातन-धर्म की रक्षा के लिये प्राण-पण से तत्पर होना अज्ञान है? श्रीकृष्ण कहते हैं- हाँ, यह अज्ञान है। न तो सम्भावित पुरुषों द्वारा इसका आचरण किया गया है, न यह स्वर्ग ही देने वाला है और न यह कीर्ति को ही करनेवाला है। सन्मार्ग पर जो दृढ़तापूर्वक आरूढ़ है, उसे आर्य कहते हैं।

गीता आर्यसंहिता है। परिवार के लिये मरना-मिटना यदि अज्ञान न होता तो महापुरुष उस पर अवश्य चले होते। यदि कुलधर्म ही सत्य होता तो स्वर्ग और कल्याण की निःश्रेणी अवश्य बनती। यह कीर्तिदायक भी नहीं है। मीरा भजन करने लगी, तो ‘लोग कहें मीरा भई बावरी, सास कहे कुलनाशी रे।’ जिस परिवार, कुल और मर्यादा के लिये मीरा की सास बिलख रही थी, आज उस कुलवन्ती सास को कोई नहीं जानता, मीरा को विश्व जानता है। ठीक इसी प्रकार परिवार के लिये जो परेशान हैं, उनकी भी कीर्ति कब तक रहेगी? जिसमें कीर्ति नहीं, कल्याण नहीं, श्रेष्ठ पुरुषों ने भूलकर भी जिसका आचरण किया तो सिद्ध है कि वह अज्ञान है। अतः-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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