विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दद्वितीय अध्यायक्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो। क्या अर्जुन नपुंसक था? क्या आप पुरुष हैं? नपुंसक वह है, जो पौरुष से हीन हो। सब अपनी समझ से पुरुषार्थ ही तो करते हैं। किसान रात-दिन खून-पसीना एक करके खेत में पुरुषार्थ ही तो करता है। कोई व्यापार में पुरुषार्थ समझता है, तो कोई पद का दुरुपयोग करके पुरुषार्थी बनता है। जीवनभर पुरुषार्थ करने पर भी खाली हाथ जाना पड़ता है। स्पष्ट है कि यह पुरुषार्थ नहीं है। शुद्ध पुरुषार्थ है ‘आत्मदर्शन’ गार्गी ने याज्ञवल्क्य से कहा- नपुंसकः पुमान् ज्ञेयो यो न वेत्ति हृदि स्थितम्। वह पुरुष होते हुए भी नपुंसक है, जो हृदयस्थ आत्मा को नहीं पहचानता। वह आत्मा ही पुरुषस्वरूप, स्वयंप्रकाश, उत्तम, आनन्दयुक्त और अव्यक्त है। उसे पाने का प्रयास ही पौरुष है। अर्जुन! तू नपुंसकता को न प्राप्त हो, यह तेरे योग्य नहीं है। हे परंतप! हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिये खड़ा हो। आसक्ति का त्याग करो। यह हृदय की दुर्बलता मात्र है। इस पर अर्जुन ने तीसरा प्रश्न प्रस्तुत किया- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आत्मपुराण
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